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[ १२६ ] ११-२६२१. विवेकीजन निज क्षेत्र में स्थित पर वस्तु का त्याग करते हैं, श्रद्धा द्वारा तो सर्वथा त्याग कर ही देते व चरित्र द्वारा यथाशक्ति उसको दूर करते हैं व त्याज्य भावना बनाये रहते हैं।
ॐ १२-२८५, त्याग वही उत्तम है जिसमें पर की प्रतीक्षा और आशा न करना पड़े।
फ़ ॐ १३-२८६. पर की प्रतीक्षा व आशा न चाहने वालों को
अावश्यकतायें परिग्रह व प्रारम्भ कम से कम कर देना चाहिये।
' ॐ ' १४-३६०. याद रखो-आत्मशांति के लिये परिचय, उप
कार, प्रवृत्ति, कपाय, विपयाभिलाष यह सब छोड़ना ही होगा, जब तक इनके छोड़ने में देर करोगे तब तक दुखी ही रहोगे; कोई तुम्हारी रक्षा न करेगा, तुमही अपनी रक्षा कर सकोगे, अतः कुमति को दूर करो ।
॥ ॐ ॥ १५-४१८, सर्व का त्याग ही सुख है किन्तु तुम सर्व संग्रह