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[ १०६ ] प्रकार सुख के विपरीत की ओर दृष्टि होने से कहीं सुख पा सकेगा ? कभी नहीं, अतः ठहर, रुक, वापिस आ, अपने स्वरूप ( ज्ञानमात्रानुभव ) में प्रवेश कर । निजरूप ही सुख की दिशा है ।
११-५५०. कोई भी प्राणी मृत्यु के लिये तैयार होकर नहीं
बैठता है, मत्यु तो किसी भी समय अचानक आजाती है, अतः थोड़े समय के इस संदिग्ध जीवन में अपनी स्वात्मदृष्टि करो इसी में भलाई है।
१२-५७७. जिसने दृष्टि पराश्रित बनाई-यदि वाह्य में किसी
द्रव्य का ऐसा हो तो अच्छा है ऐसा विकल्प किया, भगवन् ! वह पराश्रित है, अंशज्ञ है और आकुलित है। यह विकल्प ही आत्मा का शत्रु है । पर का विचार पर की चर्चा ही आकुलता के स्रोत हैं।
१३-५८३. अरा-र र रा -- वाह्य दृष्टि में -- पर्याय
बुद्धि में संसारी का अनंतकाल व्यतीत होगया, अरे अव भी कुछ नहीं बिगड़ा, आज आत्मदृष्टि-द्रव्यदृष्टि करले अभी तो इस से भी अधिक अनंतानंतकाल और व्यतीत