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होना है, सो कुल भी अनंतानंतकाल रहेगा । फ्रॐ फ्र
१४-६६५, जगत के काम अपने अपने उपादान से हो रहे हैं, होते रहेंगे, अथवश हों या न हों, किसी भी पर द्रव्य से तेरी कोई भलाई नहीं हैं। अपनी ओर ही दृष्टि रख । फ्रॐ फ्र
१५ - ५४८. दूसरों के गुणों को हीं ग्रहण करो और उस के गुणों के चिन्नवन से आप स्वयं इस रूप बनने का प्रयत्न करो |
फ्रॐ फ्र १६-२४६. दूसरों के दोष ही देखना एक महादोष है यदि प की अन्वेषिका बुद्धि का प्रयोग करना हो तो अपने पर करो ।
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१७- ८३१. संसार की जो परिणति है यह उन्हीं की है - रहे, तुम तो अपने गुण अवगुण पर दृष्टिपात करो उन में जो हैं उन्हें ग्रहण करो और जो दोष हैं उन्हें हटावा । गुण
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फ्र १८-६१२. सन्मान का प्रभाव अखरना, दूसरे अच्छी दृष्टि से न देखें तो वह भाव अखरना, लौकिक वैभव में पड़ोसी