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[ ६३ ] १५-६४६. संपत्ति पाकर तृप्णा से, व्यवस्था से, भय से सदैव आकुलित होना पड़ता है।
ॐ ॐ ॐ १६-६४७. विपत्ति में घबड़ाकर दुःखी बना रहता है।
१७-६४८, प्रशंसा में अपने स्वरूप को भूल कर व प्रशंसा
करने वालों के अनुकूल वृति बनाकर च कर उठाकर व्याकुल बनना पड़ता है।
ॐ ॐ ॐ १८-६४६. निन्दा में अपनी हानि समझकर लोकलाज से संक्लिष्ट बना रहता है।
॥ ॐ १६-६५०. संपत्ति और प्रशंसा का कारण पुण्योदय है, विपचि और निन्दा का कारण पापोदय है। पाप पुण्य दोनों आकुलता के जनक हैं, एक शुद्धावस्था (ज्ञानमात्र की दशा) ही शान्तिमय है।
ॐ ॐ ॐ