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[ ६२ से दुखी हैं तथैव भूर्ख ज्ञान विना दुखी हैं और शास्त्रज्ञानी तृष्णा से दुखी हैं, अयशस्वी पूछताछ बिना दुखी हैं और यशस्वी लोकैषणा से दुखी हैं, 'अपुत्र पुत्र बिना दुखी हैं और पुत्र वाले पुत्र सेवा से दुखी हैं या मोह से या पुत्र, दुःख से या अनिष्टभय से दुखी हैं, अमनस्वी दैन्यभाव से दुखी हैं और मनस्वी मान या मानभंग से दुखी हैं, भोले ठगे जाने से दुखी हैं और ठगिया संक्लेश भाव व अनिष्ट शका से दुखी हैं, इसलिये-दाम बिना निर्धन दुखी तृष्णावश धनवान । कहूं न सुख संसार में सब जग देख्यो छान ॥ इस दोहे को देशामर्षक समझो अर्थात् अनेकविधदुःखमय संसार है, परन्तु सर्व दुःख आत्मज्ञान से दूर हो सकते हैं।
१३-६२८. इस असार परिवर्तनशील संसार में प्रतिष्ठा का
व्यामोह करना घोर दुःखों का कारण है ।
१४-६४५. संपत्ति और विपत्ति, प्रशंसा और निन्दा आकु
लता उत्पन्न करने वाले हैं।