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१४ अकर्तृत्व
१-२०. मैं इन जीवों का पालक, रक्षक या उपदेशक हूँ यह
अहंकारे व्यर्थ है यदि कल्पना ही उठे तो ऐसी कल्पना हो कि इनके पुण्योदय से या भवितव्य से इनके पालन, रक्षा के लिये या ज्ञान के विकास के लिये मैं सेवक या निमित्त बन रहा है।
२-३२. पुण्य के उदय में मग्न मत होत्रो और न पुण्य की
इच्छा से पुण्य करो तथा गर्व या अहंकार में आकर • पाप मत करो केवल ज्ञायक रहो।
३-३३. पाप के उदय में विषादी मत होओ और न विवाद
से बचने के लिये पाप करो तथा विपदा से बचने की इच्छा से लोभी होकर पुण्य भी मत करो, जिस अवस्था में हो उसी अवस्था में परमात्मा या निज शुद्धात्मा का ध्यान करके केवल ज्ञायक रहो और स्वयं पुण्य बन