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[ ७६ ] शिकार बनना, अतः सुख चाहने वालो ! पवित्रज्ञोन मय शरीर ही अपना समझकर ज्ञानपरिणति में ही याद करो और आत्मबली बनो ।
फॐ फ
१७-६११. रागद्व ेष का उदय हुआ उसमें हम वह गये, हमने अपनी क्या दया की ( विचारो ) ।
फॐ फ्र
१८- ७११. उत्तम ब्रह्मचर्य पालन करने वाले तथा अन्तरंग से विरक्त पुरुष के शहर का निवास छूट जाता है, इस काल में भी विशेष गर्मी सर्दी आदि वाधा के अभाव में शहर के बाहर ही निवास होना चाहिये । ॐ फ्र १९ - ३०. मन को पवित्र बनाये रहना व जिन उपायों से पवित्रता बनी रहे उन उपायों को करना मनुष्यजन्म का फल या सार्थक्य है और व्यवहार सुखों में सर्वोपरि सुख है ।
फॐ
२० - ८२७, अन्तरंग की पवित्रता के बिना वाह्य पवित्रता से आत्मा शान्त नहीं हो सकता श्रत: चाहे आपदा आवे