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________________ ३२० कुदकुद-भारता कर्मजन्य मतिज्ञानको धारण करनेवाला जो जीव स्वभावज्ञान -- केवलज्ञानका खंडन करता है अथवा उसमें दोष लगाता है वह अपने इस कार्यसे अज्ञानी तथा जिनधर्मका दूषक कहा गया है।।५६।। णाणं चरित्तहीणं, देसणहीणं तवेहि संजुत्त। अण्णेसु भावरहियं, लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ।।५७।। चारित्ररहित ज्ञान सुख करनेवाला नहीं है, सम्यग्दर्शनसे रहित तपोंसे युक्त कर्म सुख करनेवाला नहीं है, तथा छह आवश्यक आदि अन्य कार्योंमें भी भावरहित प्रवृत्ति सुख करनेवाली नहीं है, फिर मात्र लिंगग्रहण करनेसे क्या सुख मिल जायेगा? ।।५७ ।। - [इस गाथाका एक भाव यह भी हो सकता है -- हे साधो! तेरा ज्ञान यथार्थ चारित्रसे रहित है, तेरा तपश्चरण सम्यग्दर्शनसे रहित है तथा तेरा अन्य कार्य भी भावसे रहित है अतः तुझे लिंगग्रहणसे -- मात्र वेष धारण करनेसे क्या सुख प्राप्त हो सकता है? अर्थात् नहीं।] ।।५७ ।। अच्चेयणं पिचेदा, जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी। सो पुण णाणी भणिओ, जो मण्णइ चेयणे चेदा।।५८।। जो अचेतनको भी चेतयिता मानता है वह अज्ञानी है और जो चेतनको चेतयिता मानता है वह ज्ञानी है।।५८ ।। तवरहियं जं णाणं, णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेण य, संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ।।५९।। जो ज्ञान तपसे रहित है वह व्यर्थ है और जो तप ज्ञानसे रहित है वह भी व्यर्थ है, इसलिए ज्ञान और तपसे युक्त पुरुष ही निर्वाणको प्राप्त होता है।।५९।। धुवसिद्धी तित्थयरो, चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। णाऊण धुवं कुज्जा, तवयरणं णाणजुत्तो वि।।६।। जो ध्रुवसिद्धि हैं अर्थात् जिन्हें अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होना है तथा जो चार ज्ञानोंसे सहित हैं ऐसे तीर्थंकर भगवान् भी तपश्चरण करते हैं ऐसा जानकर ज्ञानयुक्त पुरुषको भी तपश्चरण करना चाहिए।।६० ।। बाहिरलिंगेण जुदो, अब्भंतर लिंगरहिदपरियम्मो। सो सगचरित्तभट्टो, मोक्खपहविणासगो साहू।।६१।। जो साधु बाह्यलिंगसे तो सहित है, परंतु जिसके शरीरका संस्कार (प्रवर्तन) आभ्यंतर लिंगसे रहित है वह आत्मचरित्रसे भ्रष्ट है तथा मोक्षमार्गका नाश करनेवाला है।।६१ ।। सुहेण भावितं ज्ञानं, दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए।।६२।।
SR No.009898
Book TitleAshta Pahud
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages85
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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