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________________ अष्टपाड ३१९ कारणोंसे युक्त होनेपर स्पष्ट अन्यरूप हो जाता है। (यहाँ गाथाका एक भाव यह भी समझमें आता है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि स्वभावसे विशुद्ध है परतु परपदार्थके संयोगसे वह अन्यरूप हो जाता है उसी प्रकार यह जीव स्वभावसे रागादिवियुक्त है अर्थात् राग द्वेष आदि विकारभावोंसे रहित है परंतु परद्रव्य अर्थात् कर्म नोकर्म पर पदार्थोंके संयोगसे अन्यान्य प्रकार हो जाता है। इस अर्थमें वियुक्त शब्दके प्रचलित अर्थको बदलकर 'विशेषेण युक्तः वियुक्तः अर्थात् सहितः' ऐसी जो क्लिष्ट कल्पना करना पड़ता है उससे बचाव हो जाता है।।५१।। देवगुरुम्मि य भत्तो, साहम्मि य संजदेसु अणुरत्तो। सम्मत्तमुव्वहंतो, झाणरओ होइ जोई सो।।५२।। जो देव और गुरुका भक्त है, सहधर्मी भाई तथा संयमी जीवोंका अनुरागी है तथा सम्यक्त्वको ऊपर उठाकर धारण करता है अर्थात् अत्यंत आदरसे धारण करता है ऐसा योगी ही ध्यानमें तत्पर होता है।।५२।। 'उग्गतवेणण्णाणी, जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहि। तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ अंतो मुहुत्तेण।।५३।। अज्ञानी जीव उग्र तपश्चरणके द्वारा जिस कर्मको अनेक भवोंमें खिपा पाता है उसे तीन गुप्तियोंसे सुरक्षित रहनेवाला ज्ञानी जीव अंतर्मुहूर्तमें खिपा देता है।।५३।। ज्ञानी और अज्ञानीका लक्षण सुभजोगेण सुभावं, परदव्वे कुणइ रागदो साहू। सो तेण दु अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो।। ५४।। जो साधु शुभ पदार्थके संयोगसे रागवश परद्रव्यमें प्रीतिभाव करता है वह अज्ञानी है और इससे जो विपरीत है वह ज्ञानी है।।५४ ।। आसवहेदू य तहा, भावं मोक्खस्स कारणं हवदि। सो तेण दु अण्णाणी, आदसहावस्स विवरीदो।।५५।। जिस प्रकार इष्ट विषयका राग कर्मास्रवका हेतु है उसी प्रकार मोक्ष विषयका राग भी कर्मास्रवका हेतु है और इसी रागभावके कारण यह जीव अज्ञानी तथा आत्मस्वभावसे विपरीत होता है।।५५ ।। जो कम्मजादमइओ, सहावणाणस्स खंडदूसयरो। सो तेण दु अण्णाणी, जिणसासणदूसगो भणिदो।।५६।। १. 'कोटिजनम तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरै जे। ज्ञानीके छिनमाहिं गुप्तिते सहज टरै ते।।' -- छहढाला
SR No.009898
Book TitleAshta Pahud
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages85
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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