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अष्टपाहड
यह श्रेष्ठतर उपदेश स्पष्ट ही जन्म-मरणको हरनेवाला है, इसे जो मानता है -- इसकी श्रद्धा करता है वह सम्यक्त्व है। यह सम्यक्त्व मुनियोंके, श्रावकोंके तथा चतुर्गतिके जीवोंके होता है।।४०।।
जीवाजीवविहत्ती, जोई जाणेइ जिणवरमएणं।
तं सण्णाणं भणियं, अवियत्थं सव्वदरिसीहिं।।४१।। जो मुनि जिनेंद्रदेवके मतसे जीव और अजीवके विभागको जानता है उसे सर्वदर्शी भगवान्ने सम्यग्ज्ञान कहा है।।४१।।
जं जाणिऊण जोई, परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं।
तं चारित्तं भणियं, अवियप्पं कम्मरहिएण।।४२।। यह सब जानकर योगी जो पुण्य और पाप दोनोंका परिहार करता है उसे कर्मरहित सर्वज्ञदेवने निर्विकल्पक चारित्र कहा है।।४२।।
जो रयणत्तयजुत्तो, कुणइ तवं संजदो ससत्तीए।
सो पावइ परमपयं, झायंतो अप्पयं सुद्धं ।।४३।। रत्नत्रयको धारण करनेवाला जो मुनि शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ अपनी शक्तिसे तप करता है वह परम पदको प्राप्त होता है।।४३ ।।
तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं, तियरहिओ तह तिएण परियरिओ।
दोदोसविप्पमुक्को, परमप्पा झायए जोई।।४४।। तीनके द्वारा तीनको धारण कर निरंतर तीनसे रहित, तीनसे सहित और दो दोषोंसे मुक्त रहनेवाला योगी परमात्माका ध्यान करता है।
विशेषार्थ -- तीनके द्वारा अर्थात् मन वचन कायके द्वारा, तीनको अर्थात् वर्षाकालयोग, शीतकालयोग और उष्णकालयोगको धारण कर निरंतर अर्थात् दीक्षाकालसे लेकर सदा तीनसे रहित अर्थात् माया मिथ्यात्व और निदान इन शल्योंसे रहित, तीनसे सहित अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे सहित और दोषोंसे विप्रमुक्त अर्थात् राग द्वेष इन दो दोषोंसे सर्वथा रहित योगी -- ध्यानस्थ मुनि परमात्मा अर्थात् सिद्धके समान उत्कृष्ट निज आत्मस्वरूपका ध्यान करता है।।४४ ।।
मयमायकोहरहिओ, लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो।
निम्मलसहावजुत्तो, सो पावइ उत्तमं सोक्खं ।।४५।। जो जीव मद माया और क्रोधसे रहित है, लोभसे वर्जित है तथा निर्मल स्वभावसे युक्त है वह उत्तम सुखको प्राप्त होता है।।४५।।