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प्रस्तावना।
है, यह समग्र मन्त्र पांचसौ सागरोपमों के पापों का नाश करता है, जो म. नश्य विधिपूर्वक एक लाख वार जिननमस्कारको गुणता है वह तीर्थङ्कर नाम गोत्र कर्म को बांधता है; इस में सन्देह नहीं है, जो मनुष्य भक्तिपूर्वक पाठः पाठसौ; पाठ सहस्र तथा पाठ करोड़ वार इस का गुणन करता है वह शा. श्वत स्थान ( मोक्षपद ) को प्राप्त करता है।
किञ्च-कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य जी महाराज भी अपने वनाये हुए योगशास्त्र नामक ग्रन्थ के आठवें प्रकाश में लिखते हैं कि-"अति पवित्र तथा तीन जगत् को पवित्र करने वाले पञ्च परमेष्ठि नमस्काररूप मन्त्र का चिन्तन करना चाहिये, मन वचन और शरीर की शुद्धि के द्वारा इस का एकसौ आठ वार चिन्तन करने से मुनि भोजन करने पर भी चतुर्थ तप के फल को प्राप्त करता है, इस संसार में इस ही महामन्त्र का प्रारा. धन कर परम लक्ष्मी को प्राप्त होकर योगी लोग त्रिलोकी के भी पूज्य हो जाते हैं, सहस्रों पापों को करके तथा सैकड़ों जन्तुओं को मारकर इस मन्त्र का आराधन कर तिर्यञ्च भी देवलोक को प्राप्त हुए हैं, सर्वज्ञ के समान सर्व सानों के प्रकाशक इस मन्त्र का अवश्य स्मरण करना चाहिये, अत से निकली हुई पांच वर्ण वाली पञ्चतत्त्वमयी विद्या को निरन्तर अभ्यास करने से वह संमार के क्लेशों को नष्ट करती है, इस मन्त्र के प्रभाव को अच्छे प्रकार से कहने में कोई भी समर्थ नहीं है, क्योंकि यह मन्त्र सर्वच भगवान् के साथ तुल्यता को रखता है, इस के स्मरणमात्र से संसार का बन्धन दृट जाता है तथा परमानन्द के कारण अव्यय पद को मनुष्य प्राप्त होता है" इत्यादि। __ भ्रातृगण ! श्री पञ्चपरमेष्ठि नमस्कार के महत्त्व को स्तोत्रक्षर्ता श्रोजिनकीर्तिमरि तथा अन्य प्राचार्यों के पूर्व उल्लिखित वाक्यों के द्वारा प्राय अच्छे प्रकार जान चुके * अब कहिये ऐसा कौनसा लौकिक वा पारलौकिक मुख तथा ऐश्वर्य है जो इस के विधिपूर्वक आराधन से प्राप्त नहीं हो सकता? इस दशा में पाप ही विचार लीजिये कि जो हमने इसे द दश ङ्गरूप अत परम पुरुषका शिरोभषणरत्न वा द्वादशाङ्गरूप गणिपिटकका समूल्य रत्न वत. लाया; अथवा जो इसे द्वादशाङ्गरूप विकच कुसुम कानन की मण्डनसूप नव . * श्रीनवकार मन्त्र गुणन के चमत्कारी प्रभाव तथा उस के फलों का उदाहरण पूर्वक विस्तृत वर्णन श्री कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों में भी है; वहां देख लेना चाहिये ।।
Aho! Shrutgyanam