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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि॥
भौतिक (१)विषयों का परित्याग कर प्रान्तर सूक्ष्म शरीर में अधिष्ठित [२] होकर आत्माको अपने ध्येय [३] का स्मरण और ध्यान करना चाहिये,अगले "ओ"शब्दसे ध्यानकी रीति जाननी चाहिये, "ओ" अक्षर अकार और उकार के संयोग से बनता है, प्रकार का कण्ठ स्थान है तथा उकार का मोष्ट स्थान है, कण्ठ स्थानमें उदान [४] वायु का निवास है, योगविद्यानिष्णात महात्माओं का मन्तव्य है कि ओष्ठावरण के द्वारा उदान वाय का संयम करने से अ. णिमा सिद्धि हेती है [५], अतः यह सिद्ध हुआ कि ओष्ठों को भावृत कर [६], उदान वायु का संयम कर; स्थूल भौतिक विषयोंसे चित्तवृत्ति को हटा. कर, प्रान्तर सूक्ष्म शरीरमें अधिष्ठित होकर, यथाविधि अपने ध्येय का ध्यान करनेसे जैसे योगाभ्यासी जन अणिमा सिद्धिको प्राप्त होते हैं वैसे ही उक्त क्रियाके अवलम्बन पूर्वक "णमो” पदके स्मरण और ध्यान से अणिमा सिद्रि की प्राप्ति होती है, अतः मानना चाहिये कि "णमा” पदमें अणिमा सिद्धि सन्निविष्ट है।
[च ] "णम' अर्थात् आदि शक्ति उमाका ध्यान करना चाहिये, कार अक्षर से ङ धारामें लिखित [७] ध्यान की रीति जाननी चाहिये, अर्थात्
ओष्ठावरण [८] कर उदान वायु का संयम कर आदि शक्ति उमा का ध्यान किया जाता है, महामाया आदि शक्ति उमा सूक्ष्म रूप से सब के हृदयों में प्रविष्ट है, जैसा कि कहा है किः
या देवी सर्व भूतेषु, सूक्ष्मरूपेण तिष्ठति ॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमः ॥१॥
अतः महामाया श्रादि शक्ति उमा प्रसन्न होकर ध्याता जनोंको जिसप्रकार अणिमा सिद्धि को प्रदान करती है उसी प्रकार "णमा” पद के ध्यान से अणिमा सिद्धि प्राप्त होती है, अतः “णमा” पदमें अणिमा सिद्धि सन्नि. विष्ट है।
१-भूत जन्य ॥२-अधिष्ठान युक्त ॥ ३-ध्यान करने योग्य ॥ ४-उदाने वायु का स्वरूप आदि योग शास्त्र के पांचवें प्रकाश के ११८वें श्लोकार्थ में देखो ॥ ५-अतएव श्रीहेम चन्द्राचार्य जी महाराजने योगशास्त्र के पांचवें प्रकाश के २४ वें श्लोकमें लिखा है कि “उदान वायु का विजय करनेपर उत्क्रान्ति तथा जल और पंक आदि से अबाधा होती है. ६-वन्द कर ॥ ७-लिखी हुई ॥८-ओष्ठों को बन्द कर ॥
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