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श्रीः। प्रस्तावना.
श्रीजिन धर्मानुयायी प्रिय भ्रातृवन्द !
जैनागम रहस्यरूप यह लघुपद्धति आप की सेवा में उपस्थित है, कृपया इस का प्रादर और समुचित उपयोग कर अपने कर्तव्य का पालन और मेरे परिश्रम को सफल कीजिये।
यों तो कथन मात्र के लिये यह एक लघु पद्धति है। परन्तु इसे साधारण लघुपद्धतिमात्र न जानकर रत्नगर्भा भारत वसुन्धरा का एक महर्घ वा अमूल्य रत्न समझिये, किञ्च-इस कथन में तो लेशमात्र भी अत्यक्ति नहीं है कि-ह. मारे प्रिय जैन भ्रातृवर्ग के लिये तो यह लोकालोकात्मक सकलजगत्स्वरुप प्रतिपादक द्वादशाङ्गरूप श्रुत परम पुरुष का एक शिरोभूषण रत्न है, अथवा दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि-द्वादशाङ्गरूप गणिपिटक का (कि जिस की महिमा का कथन पूर्वाचार्यों ने श्रीनन्दी सूत्र आदि आगमों में किया है) यह एक परम महर्घ रत्न है, क्योंकि द्वादशाङ्गी में जिन पक्षपरमेष्ठियों का स्वरूप और उन के अभिमत सम्यक जान दर्शन और चारित्र तथा विशुद्ध धर्म का प्रतिपादन किया है उन्हीं को नमस्कार करने की प. पार्थ विधि तथा उस के पल मादि विषयोंका वर्सन इस लघुपति में लिया गया है।
इस के इस स्वरूप का विचार करते हुए विकसित स्वान्त सरोज में साहाद यही भाव उत्पन होता है कि-यदि हम इसे द्वादशाहप विकर कुसुम कानन की मगहनरूप एक नव भामोद सञ्चारिणी कुसुम कलिका की नधीन उपमा दें तो भी असङ्गत नहीं है, क्योंकि यथार्थ बात यही है किइसी से उक्त कानन सौरभमय होकर तथा स्याद्वाद सिद्धान्त समीर के द्वारा अपने सौरभ का सञ्चार कर श्री सर्वज्ञ प्रणीत शासनके श्रद्धाल जनोंके स्वागत सरोज की भाभा सम्पन्न कर विभूषित हो रहा है।
Aho! Shrutgyanam