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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ स्पष्टतया (१) इस अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती थी कि "( यह पञ्च नम. स्कार ) सब मंगलों में प्रथम मङ्गल है" इस लिये सर्व साधारण को सुख पू. वंक उक्त अर्थ का ज्ञान होनेके लिये भातवें पद का कथन किया गया है, पाठवें पद का दूसरा कारण यह भी है कि पाठवें पदका कथन न कर यदि केवल नवें पदका कथन किया जाता तो व्याकरणादि ग्रन्थों के अनसार प्रथम शब्द को क्रिया विशेषण मानकर उसका यह भी अर्थ हो सकता था कि "(यह पञ्च नमस्कार ) प्रथम अर्थात् पूर्व काल में ( किन्तु उत्तर काल में नहीं मंगलरूप है" ऐसे अर्थ की सम्भावना होनेसे पञ्च नमस्कार का सार्वकालिक (1) जङ्गलरूपत्व (३) सिद्ध नहीं हो सकता था अतः पाठवें पदका कथन कर तथा उसमें निर्धारण (४) अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग कर यह अर्थ स्पष्टतया सूचित (५) कर दिया गया कि “(यह पञ्च नमस्कार ) सब महलों में प्रथम अर्थात् उत्कृष्ट मंगल है" तीसरा कारण प्राठवें पदके कथन का यह है कि “मंगलाणं” इस पदमें वशित्त्व सिद्धि सन्निविष्ट है (जिसका वर्णन आगे किया जावेगा) यदि पाठवें पदका कथन न किया जाता तो तदन्तर्वी (६) "मंगलाणं" पदमें वशित्त्व सिद्धि के समावेश (७) की प्रसिद्धि हो जाती, प्रतः पाठवें पदका जो कथन किया गया है वह निरर्थक (८) नहीं है।
(प्रश्न ) इम मन्त्र का नवां पद "पढमं हवइ मंगलं” है इसमें उत्तम, उत्कृष्ट और प्रधान, इत्यादि शब्दों का प्रयोग न कर प्रथम शब्द का प्र. योग क्यों किया गया है ?
( उत्तर ) उत्तम प्रादि शब्दों का प्रयोग न कर प्रथम शब्द का जो श्र. योग किया गया है, उसका कारण यह है कि "पृथ विस्तारे” इस धात से प्रथम शब्द बनता है, अतः उस (प्रथम शब्द ) का प्रयोग करने से यह ध्वनि निकलती है कि यह पञ्च नमस्कार सब मङ्गलों में उत्तम मंगल है तथा वह ( मङ्कन ) प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होकर विस्तीर्ण (ए) होता रहता है, अर्थात् उसमें कभी किसी प्रकार से हास (१०) नहीं होता है, प्रत्युत (१९)
१-स्पष्ट रीतिसे ॥२-सव कालमें रहनेवाला ॥३-मङ्गल रूप होना ॥४-जाति गुण, क्रिया के द्वारा समुदाय में से एक भागको पृथक् करने को निर्धारण कहते हैं । ५-प्रकट ॥६- उसके मध्यमें स्थित ॥ ७-वेरा होने ॥ ८-ज्यर्थ ॥ ६.-विस्तारवाला॥ १०-न्यूनता, कमी ॥ ११-किन्तु ॥
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