________________
(१६६)
श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि । द्वारा नवां; आठवां, सातवां और छठा इन चार पदों के गुणने के पश्चात् शेष पांच पद इस प्रकार गुणे जावेंगे कि "लोए सव्वसाहणं, "उवझायाणं, "पायरियाण" "सिद्धाणं” “समो अरिहंताणं” इस प्रक्रिया में "णमो” पद का सम्बन्ध पांचों के साथ में नहीं हो सकता है, क्योंकि मध्य (१) में आ गया है, यदि उसका पूर्वान्वय (२) करें तो सांध प्रादि चार के साथमें उसका अन्वय होगा किन्तु "अरि हंताणं" के साथमें नहीं होगा
और यदि उसका उत्तरान्वय (३) करें तो केवल "अरिहंताणं" पद के साथ में उसका अन्वय होगा, किन्तु पूर्ववर्ती (४) साधु आदि चार के साथ उसका अन्वय नहीं होगा, तात्पर्य यह है कि वह उभयान्वयी (५) नहीं हो सकता है, इसलिये पांचों पदोंमें उसका प्रयोग किया गया है, इसके अतिरिक्त (६) जब अनानपूर्वी के द्वारा इस मन्त्र का गुणन किया जाता है सब प्रादि और अन्त भंग को अर्थात् पूर्वानुपूर्वी और पश्चानपूर्वी को छोड़कर बीच के तीन लाख बासठ सहस्त्र, पाठ सौ अठहत्तर, भंगोंमेंसे सहस्रों भंग ऐसे होते हैं, कि जिनमें प्रथम पद कहीं छठे पदके पश्चात्, कहीं सातवें पदके पश्चात्, कहीं पाठवें पदके पश्चात् तथा कहीं नवें पदके पश्चात् गुणा जाता है तो तदर्ती (9) "समा” पदका अन्वय (८) दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें पदके साथ कैसे हो सकता है और उसका उक्त पदों में अन्वय न होनेसे सिद्ध, श्राचार्य, उपाध्याय और साधु, इनके लिये नमस्कार नहीं बन सकता है, इसलिये केवल प्रथम पदमें "समे” शब्दका प्रयोग न कर पांचों पदों में किया गया है।
(प्रश्न ) इस महामन्त्र को नवकार मन्त्र क्यों कहते हैं ?
(उत्तर) प्रथम कह चुके हैं कि इस महामन्त्रमें नौ पद हैं तथा नौ. शों पदों की क्रिया में पूर्वानपूर्वी, अनानपूर्वी और पश्चानपूर्वी के द्वारा विशेषता है, अर्थात् नौओं पदों की गुणनरूप क्रिया में भेद है, इसलिये इस मन्त्र को नवकार कहते हैं, देखो ! नवकार शब्द का अर्थ यह है कि "नवस ( पदेष ) काराः क्रियाः यस्मिन्स नवकारः” यदा "नवकाराः क्रिया
-वीच २-पूर्व के साथ योग ( सम्बन्ध ) ३-पिछले के साथ में योग॥ ४-पूर्व में स्थित ॥५-दोनों (पूर्व और पिछले) के साथ सम्बन्ध रखने वाला ॥ ६-सिवाय ७-उसमें (आदि पदमें ) स्थित ८-सम्बन्ध ।
Aho! Shrutgyanam