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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ आदि में रक्खा, क्योंकि जगत् कल्याणकारी (१) प्रतिपाद्य (२) विषय के प्रतिपादन (३) में आदि, मध्य और अन्तमें मङ्गल करना प्राप्तनिर्दिष्ट (४) है, ऐसा करने से उसके पाठक (५), शिक्षक (६) और चिन्तकों (७) का सदैव मङ्गल होता है तथा प्रतिपाद्य विषय की निर्विघ्न (८) परिसमाप्ति होकर उसकी सदैव प्रवृत्ति (द) होती है।
(प्रश्न) इस मन्त्र के मध्य और अन्तमें किस २ पदके द्वारा मध्यमगल तथा अन्त्य मङ्गल किया गया है ?
- ( उत्तर ) “लोए” इस पदके द्वारा मध्यमङ्गल तथा “मंगल” इस पदके द्वारा अन्त्य मङ्गल किया गया है।
(प्रश्न )-प्रथम अहंतों को, फिर सिद्धोंको, फिर प्राचार्यों को, फिर उपाध्यायों को और फिर साधुओंको नमस्कार किया गया है, सो इस क्रम के रखने का क्या प्रयोजन है ?
( उत्तर ) इस विषयमें संक्षेप से प्रथम कुछ लिख चुके हैं तथापि पुनः इस विषयमें कुछ लिखा जाता है-देखो ! इस क्रमके रखने का प्रथम कारणा तो यह है कि पाठ सिद्धियों के क्रम से इन पदोंका सन्निवेश (१०) किया गया है (जिसका वर्णन आगे सिद्धियों के प्रसंग में किया जावेगा ), दूसरा कारण यह है कि प्रधानता (१९) की अपेक्षा से ज्येष्ठानुज्येष्ठादिक्रमसे (१२) . "अरि हताणं” श्रादि पदोंका प्रयोग किया गया है।
( प्रश्न ) प्रधानता की अपेक्षा से इनमें ज्येष्ठानुज्येष्ठादि क्रम किस प्रकारसे है, इसका कुछ वर्णन कीजिये ?
( उत्तर ) हम सिद्धोंको अरिहन्तके उपदेशसे जानते हैं, सिद्ध अरिहन्त के उपदेशसे ही चारित्र का प्रादर कर कर्मरहित होकर सिद्धि को प्राप्त होते हैं, प्राचार्य को उपदेश देने का सामर्थ्य अरिहन्त के उपदेश से ही प्राप्त होता है, उपाध्याय प्राचार्यों से शिक्षा को प्राप्त कर स्वकर्तव्य का पालन करते हैं, एवं साधुजन उपाध्याय और प्राचार्यों से दशविध (१३)
१-संसार का कल्याण करनेवाला ॥२-वर्णनीय ॥ ३-वर्णन, कथन ४-यथार्थ चादी जनोंका सम्मत ॥ ५-पढ़ानेवाले ॥६-सीखनेवाले ॥७-विचारनेवाले ॥ ८-विघ्न के विना ॥ -प्रचार ॥ १०-स्थापन ॥ ११-मुख्यता ॥ १२-प्रथम सबमें ज्येष्ठ को, फिर उससे छोटे को, इत्यादि क्रमसे ।। १३-दश प्रकारके ॥
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