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पञ्चम परिच्छेद ।
(१६७) ( क )-सर्व शब्द इस बात को प्रकट करता है कि साधु जन सर्वकाम समर्धक होते हैं इस लिये इस पद में प्राकाम्य सिद्धि संनिविष्ट (१) है ।।
(ख )-अप्रमत्तादि, पुलाकादि, जिनकल्पिक, प्रतिमाकल्पिक, यथालन्द कल्पिक, परिहार विशुद्धि कल्पिक, स्थविर कल्पिक, स्थित कल्पिक, स्थितास्थित कल्पिक तथा कल्पातीत रूप भेदों वाले, प्रत्येकबुद्ध, स्वयं बुद्ध, बुद्ध बोधितरूप भेदों वाले तथा भारत आदि भेदों वाले तथा मुखम दुःखमादिक विशेषित सर्व साधुओं का स्पष्टतया ग्रहण हो जावे इस लिये सर्व शब्द का इस पद में ग्रहण किया है (२) ।
(ग) “सव्व साहू" इस प्राकृत पदका अनुवाद "सार्वसाधनाम्” भी होसकता है, जिसका अर्थ यह है कि साधुजन सार्व अर्थात् सर्व जीव हित कारी होते हैं, (३) अथवा-सार्वशब्द का अर्थ यह भी है कि अहर्म का स्वीकार करने वाले (४) जो साधु हैं उनको नमस्कार हो । अथवा-सर्व शुभ योगों को जो मिद करते हैं उनको सार्व कहते हैं, इसलिये सर्व शब्द से अ. रिहन्त का भी ग्रहण होसकता (५) है, अतः यह अर्थ जानना चाहिये कि सार्व अर्थात् अरिहन्त का जो साधन करते हैं अर्थात् आज्ञापालन के द्वारा तथा दुर्नयों के निराकरण के द्वारा उन की आराधना तथा प्रतिष्ठापना करते हैं।
(घ ) “सव्वसाहूणं” इस प्राकृत पदका संस्कृतानुवाद “श्रव्यसाधूनाम्" भी होसकता है, उसका अर्थ यह होगा कि-श्रव्य अर्थात् श्रवण करने योग्य जो वाक्य हैं उनके विषय में जो साध हैं. उनको श्रव्य साध कहते हैं ()।
(ङ) अथवा-सव्व साहूणं" का संस्कृतानुवाद “सव्यसाधनाम्” भी १-इस विषयका वर्णन आगे किया जावेगा॥२-तात्पर्य यह है कि यदि सव्वसा. हणं"इस पद में “सव” शब्द का ग्रहण न करते तो अप्रमत्ताद रूप भेदोंसे यक्त सर्व साधओं का स्पष्टतया बोध नहीं होता। अतः उन सब का स्पष्टतया बोध होने के लिये "सर्व” शब्द का ग्रहण किया गया है ॥३-'सर्वेभ्यो हिताः सार्वाः " ॥ ४-"सन यैर्विशिष्टत्त्वात्सर्वोऽर्हद्धर्मः, तत्र भवाः (तत्स्वीकर्तारः ) सार्वाः ॥ ५-"साधन. रूपत्वात्सर्वेषु ( शुभेषु योगेषु ) ये वर्तन्ते ते सार्वाः अर्हन्तः, तान् दुर्नयनिरासेन साधयन्ति आराधयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति वेति सार्चसाधवस्तेषाम् ॥६-"श्रव्येष श्रवणीयेषु वाक्येषु साधवः श्रव्यसाधवस्तेषाम्” ॥
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