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पञ्चम परिच्छेद ॥
(१६५) अथवा-जो असहायों के सहायक होकर तपश्चर्या आदि में सहायता देते हैं उन को साधु कहते हैं (१)।
अथवा-जो संयमकारी जनों की सहायता करते हैं उन को साधु कहते हैं। (प्रश्न )-उक्त गुणविशिष्ट साधनों को नमस्कार करने का क्या कार
( उत्तर )-मोक्षमार्ग में सहायक होने के कारण परम उपकारी होने से साधओं को अवश्य नमस्कार करना चाहिये। .. किञ्च-जैसे भ्रमर वृक्ष के सुगन्धित पुष्य पर बैठ कर उसके थोड़े से पराग को लेकर दूसरे पुष्प पर चला जाता है, वहां से अन्य पुष्प पर चला जाता है। इस प्रकार अनेक पुष्पों पर भ्रमण कर तथा उन के थोड़े २ पराग का ग्रहण कर अपने को सन्तुष्ट कर लेता है अर्थात् पुष्प को बाधा नहीं पहुंचाता है, उसी प्रकार साधु भी अनेक गृहों में भ्रमण कर बयालीस दोष. रहित विशुद्ध आहार का गवेषण कर अपने शरीर का पोषण करता है, पांचों इन्द्रियों को अपने वश में रखता है अर्थात् पांचों इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति नहीं करता है, षट् काय जीवों की स्वयं रक्षा करता है तथा दूसरों से कराता है, सत्रह भेद विशिष्ट (२) संयम का भाराधन (३) करता है, सब जीवों पर दया का परिणाम रखता है, अठारह सहस्र शीला.
रूप रथ का वाहक (४) होता है, अचल प्राचार का परिषेवन करता है, नव प्रकार से ब्रह्मचर्य गुप्ति (५) का पालन करता है, बारह प्रकार के तप (६) में पौरुष दिखलाता है। प्रात्मा के कल्याण का सदैव ध्यान रखता है, आदेश और उपदेश से पृथक रहता है तथा जन सङ्गम; वन्दन और पूजनकी कामना से पृथक रहता है। ऐसे साध को नमस्कार करना अवश्य समुचित है। .१-कहा भी है कि "असहाइसहायत्तं, करेंति मे समं करंतस्स ॥ एएणं कारणेणं, णमामि हंसब्वसाहूणं ॥२॥ अर्थात् संयम करते हुए मुझ असहाय की सहायता साध ही करते हैं, अतः मैं सर्व साधुओं को नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥ २-सत्रह भेदों से युक्त ॥ ३-सेवन ॥ ४-चलाने वाला ॥५-नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का वर्णन आगे साधु गुणवर्णन में किया गया हैं ॥ ६-अनशन, ऊनोदरता, वृत्तिका संक्षेपण, रसत्याग, तनुक्ल श, लीनता, प्रायश्चित्त, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, विनय, व्युत्सर्ग तथा शुभ ध्यान, ये वारह प्रकार के तप हैं, इन में से प्रथम छः बाह्य तप हैं तथा पिछले छः आभ्यन्तर तप हैं ॥
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