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- तृतीय परिच्छेद ॥
(१२७) सूदम तनुयोग से सूक्ष्म वचन योग तथा मनोयोग को रोक देता है, त. दनन्तर सूक्ष्म क्रियायुक्त तजा असूक्ष्म तनयोग वाले ध्यानको करता है ॥५५॥
तदनन्तर योगरहित उस पुरुष के “समुत्पन्न क्रिय” ध्यान प्रकट हो जाता है तथा इस के अन्त में चार अघातिकर्म क्षीण हो जाते हैं ॥ ५६ ॥
जितने समयमें पांच लघु वर्णो का उच्चारण होता है उतने ही समय में शैलेशी को प्राप्त होकर सब प्रकारसे वेद्य, प्राय', नाम और गोत्र कर्मों को एक ही समय में उपशान्त कर देता है ॥ ५७ ॥ ____ संसार के मूल कारण-औदारिक, तैजस और कार्मणों को यहीं छोड़कर ऋजुश्रोणि के एक समय में लोकान्त को चला जाता है ॥ ५८ ॥
उपग्रह के न होने से उसकी ऊर्ध्वगति नहीं होती है, गौरव के म होने से उस की अधोगति नहीं होती है तथा योग के प्रयोग का नाश हो जाने से उस की तिर्यग गति भी नहीं होती है ।। ५९ ॥
किन्तु लाघवके योगसे धमके समान, सङ्गके विरहसे अलाबके फल के समान तथा बन्धन के विरह से एरण्ड के समान सिद्धकी ऊर्ध्वगति होती है ॥६॥
पश्चात् केवल ज्ञान और दर्शन को प्राप्त होकर तथा मुक्त होकर वह सादि अनन्त, अनुपम, बाधा रहित तथा स्वाभाविक सुख को पाकर मुदित होता है ॥ ६१॥ ___फ-श्रु तरूप समुद्र में से तथा गुरु के मुखसे जो मैंने प्राप्त किया था उसे मैंने अच्छे प्रकार दिखला दिया, अब मैं इस अनुभव सिद्ध निर्मन तत्त्व को प्रकाशित करता हूं ॥१॥
इस योगाभ्यास में- विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन, यह चार प्रकार का चित्त है तथा वह तत्त्वज्ञों (१) के लिये चमत्कारकारी (२) है ॥२॥
विक्षिप्त चल माना गया है (३) तथा यातायात कुछ सानन्द है, ये दोनों ही ( चित्त ) प्रथम अभ्यास में विकल्प विषय का ग्रहण करते हैं ॥३॥
श्लिष्ट चित्त स्थिर तथा सानन्द होता है, तथा मुलीन चित्त अति नि. श्वल (४) तथा परानन्द (३) होता है, इन दोनों चित्तों को बुद्धिमानों ने तन्मात्र विषय (६) का ग्राहक नाना है॥४॥ । क-अब यहां से आगे उक्त ग्रन्थ के बारहवें प्रकाश का विषय लिखा जाता है।
१-तत्त्वके जानने वालों ॥२-वमत्कारका करने वाला ३-चल चित्तको विक्षिप्त कहते हैं ॥४-बहुत ही अचल ।। ५-उत्कृष्ट आनन्द युक्त ॥६-केवल उतने ही विषय ॥
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