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________________ ( १२६ ) श्रीमन्त्रराज गुणकल्पमहोदधि ॥ मानों शरीर को धारण कर सम्यक् चरित्र, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन ही शोभा देते हों ॥ ४३ ॥ धर्म का उपदेश देते समय प्रभु के चार मुख और अङ्ग हो जाते हैंमानों कि चारों दिशाओं में स्थित जनों का एक ही समय में अनुग्रह करने की उन की इच्छा हो ॥ ४४ ॥ उस समय भगवान् -सुर, (१) असुर, नर और उरगों (२) से वन्दित च रण (३) होकर इस प्रकार सिंहासन पर विराजते हैं जैसे कि सूर्य पूर्वगिरिके शिखर पर ॥ ४५ ॥ तेजः समूह (४) के विस्तार से सब दिशाओं को प्रकाशित करने वाला चक्र प्रभुके पास उस समय त्रिलोकी के चक्रवर्ती होनेका चिह्न स्वरूप होजाता है ॥४६॥ कम से कम एक करोड़ भुवनपति, विमानपति, ज्योतिःपति और वानव्यन्तर ( देव ) समवसरण में प्रभु के समीप में रहते हैं ॥ ४७ ॥ जिस का तीर्थङ्कर नाम कर्म नहीं होता है वह भी योग के बल से केवली होकर छायु के होते हुए पृथिवी को बोध (५) देता है ॥ ४८ ॥ केबल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त्त (६) की आयु वाला योगी पुरुष शीघ्र ही तीसरे ध्यान को भी कर सकता है ॥ ४० ॥ प्रायुःक :कर्म के योग से यदि कदाचित् अन्य भी अधिक कर्म हों तो उन की शान्ति के लिये योगी को समुद्घात करना चाहिये ॥ ५० ॥ योगी को उचित है कि तीन समय में दण्ड, कपाट और मन्थानक को करके चौथे समय में सम्पूर्ण लोक को पूर्ण करदे ॥ ५९ ॥ तदनन्तर चार समयों में इस लोक पूरण से निवृत्त होकर आयुः सम. कर्म को करके प्रतिलोम मार्ग से ध्यानी हो ॥ ५२ ॥ श्रीमान् तथा अचिन्त्य (9) पराक्रम युक्त होकर शरीर योग अथवा वादरमें स्थित होकर बादर वाग्योग तथा मनोयोगको शीघ्रही रोक देता है ॥५३ सूक्ष्मकाय योग से बादर काययोग को रोक दे; उस के निरुद्ध (८) न होने पर सूक्ष्म तनुयोग (९) नहीं रोका जा सकता है ॥ ५४ ॥ १ – देव ॥ २-सर्पों ॥ ३ - वन्दना ॥ ( नमस्कार ) किये गये हैं चरण जिनके ॥ ४- प्रकाश का समूह ५- ज्ञान ६- मुहूर्त के भीतर, मुहूर्त्त से कुछ कम ॥ सोचे जाने योग्य ॥ ८-रुका हुआ ॥ ६-सूक्ष्म शरीर योग ॥ ७ --न Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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