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, तृतीय परिच्छेद ॥
(११७) . ऐहिक () फल की इच्छा रखने वाले पुरुषों को इस मन्त्र का प्रणव पूर्वक (२) श्यान करना चाहिये तथा निर्वाण (३) पदकी इच्छा रखनेवाले पुरुषों को प्रणव से रहित (४) इम मन्त्र का ध्यान करना चाहिये ॥॥
कर्मसमूह की शान्ति के लिये भी इस मन्त्र का चिन्तन करना चाहिये. तथा प्राणियों के उपकार के लिये उस पाप भक्षिणी विद्या का स्मरण क. रना चाहिये ॥ १३ ॥
इस विद्याके प्रभाव की अधिकता से मन शोघ्र ही प्रसन्न होता है, पाप की मलीनता (५) को छोड़ देता है तथा ज्ञान रूप दीपक प्रकाशित हो जाता है ।। ७४ ॥
ज्ञानवान् बज स्वामी आदिने विद्यावाद (६) से निकालकर शिवलक्ष्मी (७) के वीजरूप, जन्मरूप दावानल (८) को शान्त करने के लिये नवीन मेघ के समान सिद्धचक्र को कहा है, गुरु के उपदेश से जानकर उस का चिन्तन करे ॥ ७५ ।। ७६ ॥
नाभि कमल में स्थित विश्वतो मुख () "प्रकार का ध्यान करे, मस्तक कमल में स्थित "सि” वर्ण का ध्यान करे, मुख कमल में स्थित "नाकार" का ध्यान करे, हदय कमल में स्थित "उकार" का ध्यान करे तथा कण्ठ. कमलमें स्थित “साकार" का ध्यान करे, तथा सर्व कल्याण के कर्ता अन्य भी जीवों का स्मरण करे॥ १७ ॥ ७ ॥
श्रुत रूप समुद्र से उत्पन्न हुए अन्य भी समस्त अक्षर रूप पदोंका ध्यान करना निर्वाण पदकी सिद्धि के लिये होता है ॥ ७९ ॥
योगी को वीतराग (१०) होना चाहिये, चाहे वह किसी का चिन्तन करे, उस ध्यान का वर्णन अन्य ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक किया गया है ॥८॥
इस प्रकार मन्त्र विद्याओंके वर्णों और पदोंमें लक्ष्मी भावकी प्राप्तिके लिये कमसे विश्लेष को करे ॥ १॥ ..१-इस संसार के ॥ २-ओंकार के सहित ॥ ३-माक्षपद ॥ ४-ओंकार से रहित ॥ ५-मैलेपन ॥ ६-विद्यावाद चौदह पूर्वो में से दरावां पूर्व है, इसको विद्यानुप्रवाद भी कहते हैं ॥ ७-मोक्षसम्पत्ति ॥ ८-दावाग्नि ॥ ६-चारों ओर मुखवाले ॥ १०-रागसे रहित ॥
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