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________________ अंक ३] धीर वंशावलि. ध्याय विहार करता बइणप नगरि आव्या । तिहां श्री करी स्व २ नई घरे गया, पिण सा जगडूओ शाल'इं खुणे श्रीमाली कोडि नामें व्यवहारीओ प्रतिबोधी स्व गछिं एक ठिकाणे अंधकारी सुतो छई। एहनई आकाश थकी कीधो । तिहां थकी विहार करता घणा गृहस्थने प्रतिबोधी एक तारानो पत्तन हूओ | एतलई शिष्य कह्यौ, श्री गुरु दीक्षा देता पुनः श्राधि प्रमुषनें दीक्षा देता थका एह किस्युं ? तिवारइं गुरु कयु-पांचवर्ष लागटई दर्भिक्ष पश्चिम देश मंदाउर नगरई आव्या | तिहां वि० सं० हुसई । तिहा घणा जीवनो संहारनो मालिस १२०२ वर्षि उ० श्री विजयचंद्रनें सूरी पद हुओ । हूओ । ते सांभली शिष्य कहई-तिणे समयई कोइ श्वी आयरक्षित सूरी ना (६६-२) म दीर्छ । केतलाक अभयदाननो देणहार हूसि किंवा नहि ? तिवारि चौमासा पश्चिम दिशि कीधा । तिहां थकी विहार गुरु कहई-इसि नगरइं सा० जगड़ करता श्री विधि पक्ष गछ विरुद धारक श्री आर्यरक्षीत छई । हिवणां ते दरिद्रि छई । पिण तेहना वृद्ध पिता सूरी गुज्जराति अणहिल्ल पतनि पंचाश्वरनई नमवा श्रीवंत हूता । ते पोताना पितानी घरभूमि घणई द्रव्य आव्या | तिहां शालवी गृहस्थनई तंतुआ जीवनी उत्पत्ती काढी व्यापारइं धी द्रव्यन वधारो करी नइं, घणा जीदेखाडी स्व गछइं लीधा | तिहां चउमासे रह्या । एहवई वने रक्षक पणइं, जिन प्रासाद नापजावी, श्री सिद्धाचलें बइणप नगर थकी कोटी व्यवहारीओ कोइक कार्यार्थे यात्रा करी, श्री जिनशासाने आचंद्रार्क विष्यात इंसिं । टणई आव्यो । तिहां देव दर्शन करी जिहां शालाई ते गुरु वचन साभली तिण जगई गुरु वांदि तिमज राजा कुमारपाल आ० श्री हेमचंद्रना मुष थकी उपदेश कीधुं | समुद्रनो व्यापार ते जेम-तुरीनी वुहरत-द्रव्य सांभलीई छ, तिहां आवी सभा समक्षइं श्रीहेमचंद्रने वधारी देशिं २ द्रव्य मोकली, अन्न-उदक-घृत-गुडवस्त्रांचलई वांदई । ते देखी राजा कुमारपाल कहई-ए कुण खंड-साकर-तैल-प्रमषनो संग्रह कराव्यो । ते वि. सं. गृहस्थ जे वीगर वांदणई इम वांदई १ ते सांभली १२११ वर्ष थकी वि. सं. १२१५ तांई एवं वर्ष पांच श्री हेमचंद्र कहै-ए विधिपक्षीक । तिवारि कुमारपाल सा. जगडू घणा जीवनइं अभयदाननो देणहार हूओ । कहई--ए वस्त्रांचलि गुरुनइ वांदई छई तेह थकी एहनो श्री सिद्धाचल १ गिरीनारि २ श्री वेलाकूलि ३ श्री नांम अचलिक कहो | एतलई वि०सं० १२२१ वर्षि नर्मदातटे ४ श्री अजयामेरु ५ इत्यादि महादान बीजुं नाम अंचल गछ कहिवाणो | तिहां थकी श्री आर्य- शाला की वी। रक्षित सुरि विहार करता श्री बइणप नगरी आव्या । दूहो-नोकारवाली मणि अडा० । एहवई सओ वर्म आठ संपुर्णी (६७-१) वि० सं० पुनः कवीत-अट्ठ सहस्स मुंड० । १२३६ वर्षे श्री आर्य रक्षित सूरी स्वर्ग हूओ | एहवइ एहवो जगडूओ दानें उदार, उपकारी, गुण जाणी वि० सं० १२३६ वर्ष साढ पूर्णिमा प्रगट हूओं। दुर्भिक्ष वृद्ध वाडव रूपि जगडुनी परीक्षा करी वाचा दीधी इत्यंचलगच्छ उत्सत्तिः । जो तुज मुझ मिलवो हूओ, मित्राइ हूइ। ति(६८-१)हां तेहवई गुजराति सोलंकी कुमारपाल राज्य छतई थकी पन्नरो तरो वर्ष जे हूसे तें दुर्भिक्ष नहीं थाइ । इम कही एडवर्ड सोरठ देशि, हल्लार खंडा, भद्रेश्वर नगरें, श्री दुर्भिक्ष पोतानइं थानकै गयो । श्रीमाली सा. जगईओ माले सा. सोल्हा भार्या खेति पुत्र सा० जगडु, तेह दरीद्री पिण देव गुरुनी भक्ती साचवी वणा सुकृत करी सद्गतिनै पणई नगर माही मनुष्यना कार्य करतो माता सहित भजनार हुआ । यतः कठिण उदर पूर्ण करे हैं | एकदा तिहां विद्याधर शा- दानामृतं यस्य करारावेंदे षाई आ० श्री धर्ममहेंद्र सूरी आवी चउमाप्ती रह्या । वाक्यामृतं यस्य मुखारविंदे । एकदा एकादशीनई दिवसि सकल गृहस्थ प्रतिक्रमण कृपामृतं यस्य मनोरविंदे Aho I Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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