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जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट.
[खा।
गौत्रई श्रीधनगिरि रहई छई । तिणे सगर्भा सुनंदा स्त्रिने मांति २ नी सुखडी मुकी; गुरिं रजोहरण मुक्यो। एतलई घरे मुकी आर्य समती साला सहित वैराग्य श्री सिंहगिरि वन कुमार राजसभा समक्षि रजाहरण मस्तके लेइं सूरीनो उपदेस सांभली दिक्षा लेई गुरु साथि विहार नाच्यो; सुषडी अनि माता साहमुं न जो' । तिवारे त कीधो । केतलक दिने घरे सुनंदाने बेटो हूओ । सुनं- देखी सुनंदा विचारई, जे भाईई १ स्वामिइं २ दानी सहीयर स्त्री ते बालकने रमाडतां कहई-ताहरई (२६-१) अनई बेटइं ३ पिण दीक्षा लीधी । हवि पिताइं दीक्षा लीधी न हुत तो ( २५-१ ) जन्म ओ- संसारई रह्यो मुझनई कुण आधार । एहबउ जाणोनई त्सव करत | एहवा वचन श्रीनां ते बालके काने सांभली श्री सिहगिरिपासि सुनंदाई दीक्षा लीधी | वध कुमारई आठ जाति स्मरणइं पूर्व भव दीठो । चित्तिं चिंतवे जे हुँ पिण वर्षनई दीक्षा लेई दश पूर्व भण्या । एकदा श्रीसिंहागार चारित्र लेउं । एहवउ विचारी एकमनो थई घणु बहिर्भुमी गये हुतइं अन्य साधु नगर माहीं माहारने अर्थि रुदन करी । तेह थकी सुनंदा घणी आकुली हुई । मने गया छई। एहवइ शालाई यंत्रकपाटि बाल लीलाइं साधुनी चिंतवीं जे एहनो पिता आवे तउ तेह्ने आपुं । इम उपधि एकठी करी । विद्यार्थी ना भणई । एहवई इग्यार करतां षट् मासनउ हूओ । एहवि अवसरई श्रीसिंहगिरि अंगनी पांचना दीइ छइं । एतलई गुरु शालाने दारे सूरी शालाई रह्या | तिहां धनगिरि । १ । अनि आचार्य विवर थकी गुप्त पणइं रह्या ते सबला व्यतिकर देषी, समित । २ । ए. बिहूं साधु गुरुनि आशा लही तुंबवन जोग्य जांणी, श्री सिंहगिरि सूरीई दश पूर्वधर वज्रने पोग्राम माहिं आहारनी गविषणाई जाइ छ । एतले ज्ञान ताने पाटिं थाप्या । श्री सिंहगिरि सूरिनी आज्ञा लही उपयोगी शकन बिचारी गुरु कहै- हे शिष्य ! तुम्हने पांच शत मनि सावि पूर्व दिशि थकी विहरता उत्तर आज गोचरीई जाता साचत अचित जें मिले ते लेज्यो। दिशिं आव्या। श्री वज्र स्वामी ति
व्या । श्री वज्र स्वामी तिहां दुर्भिक्षियोगि संघ गुरुवचन अंगी करी ते बेहु मुनि संसारिक वंदाववा सुनंदा सिदातो जांणी पूर्व भव मित्र जूंभिक देवार्पित आकाशघरे पहुंता | नगर मनुष्यई घर स्त्रीई ओलखी रुदन गामिनि विद्याई श्री संघने बार योजन कल्पकनो विस्तार, करतो बालक तेणी पीडाती एहवी जे स्त्री कहई ‘आ सुत अडसठि कोठई (२६.२) निपजावी सुभिक्षई महातुम्हारो तुम्हे लिओ.' इम कहा बेटो धनगिरिनई दीधो। नसी पुरई मुक्या । पुनः श्री वज्र सूरी उत्तर दीशि थकी एतले तुरत रोतो रह्यो । ते बालक झोलाइं ( २५-२) विहरता दक्षण पंथि तुंगिया नगरई चोमासई रह्या । लेई गुरु वचन संभारी धर्मलाभ देइ धनगिारे गुरु पासिं तिहां रस विकारना जोगथी श्लेष्म हुओ | शिष्य प्रति आव्या । वणे भारइं बाह नमतो देषी वज्रसमांन भार जांणी श्री वन सूरी कहई-जिवारइं आज तुम्हें आहारने अर्थि गुरुइं वज्र कुमार नाम दीघु | साधवीने उपाश्रये शिय्या- गृहस्यनें घरे जाओ तिवारें शुठिनो खंड याचि लावजो | तरि श्राद्धि सुश्रूषा साची । पालणई पउढाडइं ! रात्रिने तिणे शिष्य तिमज सुंठि लावि गुरु हस्ते दीधी । गुरिं विषई साधवी इग्यार अंगनी सझाय करें । ते पालणे कणे ते शंठि थापि चिंते जे आहार करी ए खंड वावरिमुं। सूतां सांभलतां थका बालकने अंग इग्यार मुखि आव- आहारने करवई ते सुंठि खंड वावरवी वीसरी स्यांजेनी ब्यां । इम करतां ते वज्र बालक त्रिण वरसनो हूओ। पडिलेहण करतां, मुष वस्त्रिका पडिलेहता, कर्ण थकी सुंटी एतले तेजवंत पूत्र सुनंदा गुरु पासिं मागइं-मुनई मा- खंड प्रथबीइं पड्यो । त देखी पोतानो प्रमाद तथा विसहरो बेटो साधुजी आपो। गुरु कहें धरमलाभई विहराव्यो रण पणुं जांणी विचारई, जे हूं दश पूर्वनो धारक सहनि बालक अम्हें पाछों न दीउं | इम करतां राजा समक्ष ए किंम वीसरी ? उपयोग दीधई थकी पोतार्नु आयु विवाद हूओ । राजा कहें-- बोलाव्यो जेहनइं पासिं जाइं थोडं जांणी पोताना शिष्य श्री वज्रसेन, तेहनि पोताने तेहनो ए बालक, एहवा राजानो वचन सांभली सुनंदाई पाटई धापी, कहें तुम्हे सोपारक पत्तनई विचरो । तिहां
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