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________________ जैन साहित्य संशोधकः .१४१ बाकीनां अवतरणने अलग पाडवानुं साहस में स्वीकार्य नथी. आकारणथी मारे उपरोल्लिखित एक श्लोकना पाद जवा अन्य पादोन, तेमना तरफ लक्ष्य खेच्या सिवाय जता करवा पडथा छे. वात ए छे के प्रत्येक गद्यात्मक ग्रंथमां आवा लोक-पादों नजरे पडयां करे छेक जमन पद्यरूपे गणावाना आशयथा नथी ज उद्धृत करवामां आव्या ! आ कारणथी आपणा आ ग्रंथमां पण तेमांना, वणा खरा शंकास्पद होवा छतां कचितज लोकना पादी जेवा देखाय ए स्वाभाविक छे. आ करतां पण मोटामा मोटी मुस्केली तो गद्यात्मक अवतरणां शोधी-तारवी काढवामां बीजा श्रुतस्कंधमा चार चूल ओ एटले परिशिष्ट रूप चार विभाग छ. असलमां तेनी पांच चूलाओ गणाती हती परंतु निसीहज्झयण नामनी पांचमी चूला हालमा एक जुदी स्वतंत्र सूत्र तरीके मनाय छे. पहेली अने बीजी चूलामां आचारविषयक नियमो आपेला छे. ते बेनी रचनाशैली प्रथम श्रुतस्कंचथी वणीज जुदी जातनी पs छे. आवी जातनां वास्तविक अवतरण पण आहे. ते तद्दन कंटाळा भरेली के एटलुंज नही परंतु सूत्रने [ ८१ संबंधमा केटलुक विस्तृत वर्णन आपलं हतुं. कदाच, आज विषयी विस्तृत हकीकत पुनः बीजा श्रुतस्कंधमां आवती होवाथी ते महापरिन्ना वधारे पडतुं थवाने लीधे नष्ट थयुं होय तो ते संभावित छे. प्रमाणे मेळवेलां छे:- १, ३, १, १ मां आवेल ' सुत्ता अमुणी, मुणिणो सततं जागरंति आ वाक्योनी भाषा, अन्य गद्यात्मक भागथी स्पष्ट भिन्न पड़े छे. छतो पण आ अवतरण अने मूळ ग्रंथ-भाग बच्चे लीटी दोरी तवानुं काम अशक्य के उपर जे कोई कहेवामां आव्युं छे ते उपर थी ए स्पष्ट समजी शकाशे के प्राथमिक अनुवाद समय आचारांगना प्रथम श्रुतस्कंध जेवा ग्रंथने योग्य न्याय आपवानुं काम केटलं मुस्केली भर्यु छे. तेथी घणांक स्थळोमां तो, मूळ सूत्रनो अर्थ, जवो टीकाकारे आलो हे तेवोज में आपेलो के एटला माटे टीकाकारांना संप्रदायद्वारा संरक्षित अर्थावबोध करतां आगळ वधी मूळ सूत्रकारना असली आशयने अनुसरता अर्थनुं उद्घाटन करवानुं कार्य हुँ भावि संशोध को उपर छोडी दऊं छं. पण योग्य नथी. आ मागनो अनुवाद करवामां तेमां आवता अनेकानेक पारिभाषिक शब्दोने लांघे घणी मुस्के - ली पडी छे. आमांना केटलाक शब्दो तो एवा छ के जे टीकाकारे करेला स्पष्टीकरण छतो पण समजी शकाता नथी. बीजा केटलाक शब्दोनुं टीकाकार मात्र संस्कृत रूपज आपलं छे अने अर्वाचीन जैनाने ते समजवामां व्याख्यानी जरूर न होय तवा देखाय छे. पण आवा शब्दोना संबंधमां अमारी स्थिति जुदी ज छे. कारण के आ शब्दोने ज्यारे कोई पण यति सहज समजावी शके हे त्यारे ते मांटे अमारे खास कल्पनाथी काम लेवुं पडे छे. एटला माटे हुं आशा राखुं हुं के भारतवर्षीय विद्वानो जेओ यतियो पासेथी आवी बावतोना सहेलाई थी खुलासाओ मेळवी शके छे; तेओ आ विषयमा पोतानुं लक्ष्य आपशे अने जे केटलाक पारिभाषिक शब्दोना अर्थो युरोपीय विद्वान् जैन ग्रंथोनी सहायताथी करी शकतो नथी तेना तेओ यथार्थ अने प्रमाणभूत खुलासा मेळवशे. पूर्वकालमा प्रथम श्रुतस्कंधमां हालनां आठ अध्ययनो उपरांत एक महापरिण्णा नामतुं नवमुं अध्ययन हतुं, जे अत्यारे नष्ट भएलं छ. समवायांग, नन्दी, आवश्यक- नियुक्ति अने विधिप्रभामांना उल्लेख अनुसार ते नवभुं हतुं; परंतु आचारांगसूत्रनी नियुक्ति के जमां आचारांगसूत्रमा प्रत्येक अध्ययन तथा उद्देशकमां आवे ला विषयोनी व्यवस्थित यादी आपली छे, तेना, तथा शीलांकादि टीकाकारोना मतानुसार ते अध्ययन आठ हतुं'. तेमां सात उद्देशको हता अने भिक्षु जांवनना २ जुओ कलकत्ता आवृत्ति. १, पृ. ४३५. सर्गमां जण्णव्या प्रमाणे, पूर्व विदेहनामना एक पौराणिक त्रीजी अने चोथी चूला, ते परिशिष्ट पर्वना नवपा भूखंडमां वसता एवा सीमंधर स्वामिए स्थूलिभद्रनी मोटी बनने कही हती. आ परंपरागत कथन घणुंज विलक्षण मालम पड़े छे, के जे आचारांग सूलना छेला बे प्रकरणाने, जेनी रचनाशैलीना समयना विषयमां आपणा शब्दोमां Aho ! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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