________________
अंक ४ ]
खप्तभंगी
१५
शके.
कर्यानोमोटो फायदो ए छे के माणस कदाग्रही न थई करवा प्रयास कर्यो होत तो ते वधारे योग्य कहेवात. तेम करेलुं खंडन तो भूल अने भ्रमणा उपर रचायेलुं छे. सप्तमंगीनो प्रमाण पद्धतिनी दृष्टिए विचार करीए अने आ विचारो आ विशिष्ट रूपमा कया प्रयोजनथी मुकाया ते पण जोईए.
सप्तभङ्गीनुं वधारे पृथक्करण कर्या पहेला शंकराचार्ये तेनुं जे खंडन कर्यु छे तेनो टुंकामां उल्लेख करी जईए. सौथी प्रथम तो जणाववानुं ए छे के तेमणे पूर्व पक्षनुं कथन पूरेपूरू कयूँ नथी. सप्तभङ्गीनुं स्यादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादिथी वर्णन करती वखते तेमणे ' स्वरूपेण ' अने 'पररूपेण 'ए अगत्यना शब्दो छोडी दीधा छे. जो ए ध्यानमां होय तो ते छोडघामां बांधो नथी. पण शंकराचार्य ए बाबत उपर लक्ष्य म नथी आप्युं. अने एमनुं आखुं खंडन आ भूल उबर रचायेलुं छे. एमनो पहलो बांधो ए छे के “ एक धर्ममां एक साथे असत्त्वादि विरुद्ध धर्मनो समावेश सम्भबे नहिं शीतोमी माफक. ११५
जो शंकराचार्ये स्वरूपेण अने पररूपेण ए शब्दो ध्यानमां लीधा होत अने सत् अने असत् शब्दने पूर्व पक्षीना अर्थमां समजवा प्रयास कर्यो होत तो तेमने समजात के ‘ सत् ' अने 'असत् ' एटला बधा विरोधी नथी. बीजो बांधो ए छे के जेनुं स्वरूप अनिर्धारित छे ते ज्ञान संशयनी माफक प्रमाण न थाय. आ अने बीजा वांधाओ अनेकान्तताने अनिर्धारणात्मक गणवानी अने संशयमूलक गणवानी भूलने परिणामे छे. तेनो रदियो अकलङ्कदेवना उपर आपेला वार्तिकमां आवी
१४
छे. जो बांधो उपर जणाव्युं ले प्रमाणे अनेकान्तताने जे अनिर्धारणात्मक गणवामां आवे छे ते हे. चोथो ए छे के प्यारे वस्तुने वक्तव्य कहो छो त्यारे वळीशी रीते ते अवक्तव्य कहेवाय. आ केवल शब्दरेक्ल छे.
शंकराचार्यना मत अने जैनमत बच्चे बिरोध बन्नेना वस्तुस्वभावना ख्यालमा छे. शंकराचार्य जगत्ने एक मात्र ब्रह्ममय माननार छे ज्यारे जैन अनेकान्त तत्त्वनुं प्रतिपादन करे छे. तेथी शंकराचार्ये जो आ दृष्टिए खंडन
१५ न ह्येकस्मिन् धर्मिणि युगपत्सदसत्त्वादिविरुद्धधर्मसमावेशः संभवति शीतोष्णवत् । शांकरभाष्य, २-२-२२,२३.
१६ अनिर्धारितरूपं ज्ञानं संशयज्ञानवत् प्रमाणमेव न स्यात् ।
प्रथम प्रश्न ए छे के प्रमाण पद्धतिनी दृष्टिए साते भंगो आवश्यक छे ? एटले के वस्तुस्वभाव नक्की करवा माटे सातेनी आवश्यकता छे ? आ बाबत तो स्पष्ट छे के एक विधान एक बखते एक ज निर्देश करी शके. विध्यात्मक के प्रतिषेधात्मक. सथला विध्यात्मक वाक्योनो एक वर्ग अने निषेधात्मकनो एक बर्ग करी आपणे विध्यात्मक बर्गने विधि-विधान कहीए अने निषेधात्मक वर्णने निषेध-विधान कहीए. हबे प्रश्न ए छे के बरतु समजवा माटे आवा केटला विधानांनी जरूर छे. स्वाभाविक रीते प्रथम वस्तु पोते शुं छे तेनो निर्णय करीए. ए दृष्टि ' स्यादस्ति ' वाक्य बराबर के पछी वस्तु शुं नथी ते नक्की करीए अने ते दृष्टिए ' स्यान्नास्ति ' भङ्ग बराबर छे. आ बन्नेमाथी नीषजतुं वस्तुस्वरूप ' स्यादस्ति नास्ति' ते द्विवाक्यात्मक गंगथी दर्शावी शकाय. आ रीते प्रथम त्रण मंगोनी जरूर तो ' स्यादस्ति स्वरूपेण घटः; स्यान्नास्ति पररूपेण घट:; अने स्थादस्ति 'नास्ति कण' थी समजी शकाय चोथो भङ्ग स्यादवक्तव्य ' छे. आ भाषा तत्त्वनी दृष्टिए समजी शकाय तेम छे. एक वखते एक ज वाक्यमां विधि अने प्रतिषेध थई शके नहिं. तेथी ते अपेक्षा समये वस्तु अवक्तव्य कहवीय.
"
पण सप्तभंगीना निरूपणनुं बीजुं पण एक दृष्टिबिन्दु छे अने ते ए छे के सप्तभंगी अमुक प्रकारनी बाद पद्धतिमांश्री उत्पन्न भएली छे अने आथी सप्तभंगीनुं प्रयोजन विशेष समजाय छे. आ साते भंगो सात प्रकारना प्रश्नोना
१७ अतस्तदुभयात्मकोसी क्रमेण तच्छब्दवाच्यतामवस्कन्दन् स्याद् घटाघटश्चेत्युच्यते । यदि तदुभयात्मकं वस्तु घटइत्येवाच्येत, इतरात्मासंग्रहादतत्त्वमेव स्यात् । अथाघट एव इत्युच्येत घटात्मानुपादनादमृतमेव स्वान्न वस्तु लावदेवेति । न चान्यः शब्दस्तदुभयात्मकावस्थतत्त्वाभिधायी विद्यतेऽतोऽसौ वटो वचनगोचरातीतत्वात् ' स्यादव कव्य ' इत्युच्यते । राजवार्तिक पू- ६.
Aho! Shrutgyanam