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जैन साहित्य संशोधक
अहिंयां एक बाबत बिषे सावधान रहेवानी जरूर छे. अनेकान्तताने अनिर्धारणात्मकता के अनिश्चितस्वरूपता गणवानी भूल थई जवानो संभव छे. म्हारा समजवा प्रमाणे जैनाचार्यो कदी पण कहेता नथी के वस्तुनुं स्वरूप अनिश्चित के अनिर्धारणात्मक छे. शंकराचार्ये स्याद्वादना खंडनमा आज भूल करी छे. डॉ. बेलवेलकर जेवा विद्वाने पण आ भूलनुं अनुसरण कर्युं छे. जैनाचार्यो फक्त एटलं ज कहे छे के वस्तु अनेक धर्मात्मक छे; अने एक वखते एक ज धर्मनो निर्देश थई शके. - थी एक वाक्यमां वस्तु स्वरूपनुं संपूर्ण कथन करवुं अशक्य छे. बस्तु स्वरूप निश्चित ज छे. पण साधारण
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माणस अन सर्वज्ञमां ए अन्तर छे के सर्वज्ञ सर्व पदार्थों ने संपूर्ण रीते एना विविध स्वरूपमा एक साथे जाणे छे ज्यारे साधारण माणस एक वस्तुने पण पूर्ण रीते जाणी शकतो नथी. पण वस्तुनुं आ स्वरूप ध्यानमां रहे तेथी तेओए वाक्य रचना एबी करी छे के उपरथी जोनारने एम लागे के आ बधां वाक्यो संशयमूलक छे. पण वस्तुस्थिति एम नथी ए अकलंकदेवना तत्त्वार्थ सूत्र उपरना राजवार्तिकना नीचेना वार्त्तिकोथी स्पष्ट थाय छे.
उपर
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संशयहेतुरिति चेन्न विशेषलक्षणोपलब्ध: (सू. ६ वा. ५ )
तेना उपर टीका आ प्रमाणे छे.
इह प्रत्यक्षाद् विशेषाप्रत्यक्षाद् विशेषस्मृतेश्च संशयः । ....... नच तद्वदने कान्तवादे विशेषानुपलब्धिर्यतः स्वपराद्यादेश वशीकृता विशेषा उक्ता । व्यक्ताः प्रत्यर्थमुपलभ्यन्ते ।
'जो कोई एम कहे के सप्तभंगी संशयनो हेतु छे तो तेम नथी. — शाथी जे विशेष लक्षपनुं ज्ञान थाय छे " अहं [ अ ] प्रत्यक्ष थवाथी [ जेना बडे वस्तु निश्चय थाय ते ] विशेष न देखावार्थी अने विशेषोनी
[ खंड ४ स्मृति थवाथी संशय थाय छे...ते प्रमाणे अनेकान्तवादमां विशेषनी उपलब्धि थति नथी एम नथी; शाथी जे स्वादेश अने परादेश ने वशेकरी विशेषो प्रत्येक अर्थमां कहेला अथवा सूचवेला ( व्यक्त ? ) जणाई आवे छे. आगळ कछे छे.
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ed as many, and under many names. Theart. That is true.
१३ प्रवचनसार, २-५२
विरोधाभावात् संशयाभाव: " । सू. ६, वा. ५ [ विशेषोमां ] विरोध न होवाथी संशयनो अ
भाव छे "
“ अर्पणाभेदादविरोधः पितापुत्रादिसंबंधवत् । सू. ६ वा. १०
थी ) विरोध रहेको नथी. एक ज माणस पत “ अर्पणाना भेदथी ( एटले के दृष्टिबिन्दुना भेद
अथवा
पुत्र विगेरेना संबंधनी माफक ( जेम एकज माणसने जुदा जुदा संबंधनी जुदी जुदी दृष्टि नथी तेम स्थ अने परना दृष्टि बिन्दुथी सत् अने असत् अर्पणा वडे पिता पुत्र भाई इत्यादि कहेवामां विरोध कहेवामां विरोध नथी. )
आ प्रमाणे आपणे सप्तभङ्गीना सिद्धान्तना आधार रूप वे तस्वो जोया. आ तत्व विचारमाथी बे बाबत स्पष्ट थई आवे छे :- एक तो सप्तभंगीनी वाक्यरचनामां शो अर्थ छे ते, अने बीजी
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सत्' अने 'असत् ' नो
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स्यात् ' शब्द प्रत्येक वाक्यना प्रारंभमां केम मुकवमां आवे छे ते.
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स्यात् ए सर्वथात्वनो निषेधक अने अनेकान्तता द्योतक कथंचित् अर्थमां वपरातुं अव्यय छे. तत्त्वज्ञो वस्तुने अनेक धर्मात्मक मानता होय अने एम मानता होय के तेना निरूपणमां वपरातां वाक्योमा एक साथ एक ज बाबतनुं निरूपण भई शके; तेओ अनेकान्तता सूचक आवो कोई शब्द मुंके ए स्वाभाविक छे. जो के एम कर्याथी ते वाक्यों संशयात्मक देखाय छे अने वांचनारने भ्रमणामां नाखे छे. परंतु एम
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१४ अत्र सव! त्वनिषेधको ऽनैकान्तिकताद्योतकः कथंचिदर्थे स्याच्छन्दो निपातः । पंचास्तिकायटीका पृ० ३०.
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