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जैन साहित्य संशोधक ।
[ खंड १
। यह उदाहरण व्याप्य- कि विना न्यायशास्त्रका अध्ययन किये मनुष्य सत्यासत्यका भी निर्णय नहीं कर सकता और पदार्थ के कार्य-कारणका भी ज्ञान नहीं कर सकता । न्यायतत्त्वके जाने बिना मनुष्यकी बुद्धिशक्ति कुंठित हो रहती है। और विचारशक्ति अन्धी बनी रहती है । अत: इस कथनमें कोई भी अत्युक्ति नहीं है कि न्याय शास्त्र के अध्ययन विनाका मनुष्य बिलकुल " बाल " ही है । भारतके प्राचीन विद्वानोंने न्यायशास्त्रका कितना
१५ – यहां धुंवा नहीं है; क्योंकि यहां अग्नि नहीं हैं। यहां काय्यैसे कारणकी ओर ध्यान गया ।
वार नहीं है ।
१६ –— कल रविवार नहीं होगा; क्यौं कि आज शनि- सूक्ष्म और विस्तृत परिशीलन किया है इसकी साधारण जनोंको तो कल्पना भी आनी कठिन है। उन्होंने एक १७—कल सोमवार नहीं था, क्यौं कि आज मंगल एक विषयपर तो क्या परंतु एक एक मामूली विचार पर नहीं है । भी सेंकडों ग्रंथ और हजारों श्लोक लिख डाले हैं ! उनके इन गहन तर्कोंको देख कर आज कलके विद्वान् मनुष्यका मस्तिष्क भी चकराने लगता है तो फिर औरोंकी तो बात ही क्या। एक तो यों ही यह विषय कठिन और फिर उसपर इनकी भाषा संस्कृत होकर
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वृक्षका अभाव है व्यापक संबंध में है । १४—यहां बरसाऊ बादल नहीं है; क्यौं कि यहां नहीं हो रही । यह उदाहरण कार्य्य कारणके संबंधका है ।
१८ – इस तराजुका दाहिना पलडा डंडीको नहीं छू रहा है; क्यौं कि दूसरा पलडा उसके बराबर है । यह सहचरका उदाहरण हैं । (घ) विरुद्ध - विधि - साधक |
निरोग नहीं पाईं जाती ।
१९ - इस प्राणीमें रोग है; क्यौं कि इसकी चेष्टा उसकी शैली उससे भी कठिनतर है । इस लिये विना संस्कृतका अच्छा अभ्यास किये न्यायतत्त्वका ज्ञान होना आज प्रायः हमारे देशवासियोंके लिये दुर्लभ्य हो रहा है। इस दुर्लभताको कुछ सुलभ बनानेके लिये और सर्व साधारणको सहज ही में इस विषयका परिचय प्राप्त करा देनेके लिये श्रीयुत जैनीजीने यह प्रशंसनीय प्रयत्न किया है । आप इस बारे में लिखते हैं कि - " मेरा दृढ विश्वास है कि मनुष्य यदि प्राकृतिक नियमोंका विधिपूर्वक अनुशीलन कर ले तो न्यायशास्त्रका दुरुहपथ उसके लिये भलीभांति प्रशस्त हो सकता है । इसी विचारको भविष्य में कार्य रूप प्रदान करनेके निमित्त यह लेख प्रकाशित कराया जाता है | ताकि इस शास्त्रके धुरंधर विद्वानों द्वारा इसकी उचित समालोचना हो जाय | अगर इन नियमोंमें यदि किसी महानुभावको संशोधन करनेकी आवश्यकता प्रतीत हो तो पूरी छानबीनके बाद कर दी जाय । इस लेख द्वारा इस शैली की उपयोगिता सिद्ध हो जाने पर इस विषयको पुस्तकाकार प्रकाशित करनेका उद्योग किया जायगा जिससे मातृभाषा भाषी छात्र न्याय में प्रवेश करके सत्यासत्यका स्वयं निर्णय कर सकें । ”
आशा है कि विद्वान्वर्ग जैनी महाशयके इस उच्च आशयको लक्ष्यमें लेकर इस बारे में अपनी योग्य सम्मति प्रकाशित करेंगे ।
२० – इस स्त्रीके हृदयमें पीडा है; क्योंकि यह अपने पतिसे हठात् पृथक् कर दी गई है ।
अध्यापक महाशय को उचित है कि नाना उदा - हरणों द्वारा इन चारों किसमके अनुमानोंका ज्ञान बालकोंको करा दे || इति ।
सम्पादकीय टिप्पणी—ऊपरके दोनों लेख ( इंग्रेजी और हिन्दी ) लेखक महाशयने, खास करके बालकों को न्यायशास्त्रका सरल रीतिसे बोध करा देनेके हेतुसे लिखे हैं | मनुष्यम रही हुई बुद्धि-शक्तिको विकसित करने और सत्यासत्य के विचारकी जिज्ञासाको तृप्त करने में एकमात्र साधन न्यायशास्त्र ही है। न्यायवेत्ताओं दृष्टिमें जिस मनुष्यने न्यायशास्त्रका अध्ययन नहीं किया वह, चाहे, फिर अन्य सभी विषयोंमें पारंगत क्यों न हो, परंतु “ बाल ” ही कहलाता है । " अधीतव्याकरणकाव्यकोशोऽनधतिन्यायशास्त्रः ( जिसने व्याकरण, काव्य, कोश आदिका अध्ययन तो कर लिया है परंतु न्यायशास्त्रका अध्ययन नहीं किया वह L 'बाल' ही है ) यह नैयायिकों के " " बाल का लक्षण है । इस लक्षणमें सत्यता अवश्य रही हुई है । क्यौं
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बालः I
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