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जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट,
४६ तत्पट्टे श्री धर्म्मघोष सूरी ।
विजयवंत विहार करता तारण गिरें ( ७९ - २ ) श्री अजितनाथ वांदी श्री वीज्जापुरे चौमासिं रह्या । तिहां सकल गृहस्थ सदेव श्रीगुरु मुखि धर्म्म व्याख्या सांभलि । एतलि श्री माली वृद्ध शाखा सा पेथड उपदेश सांभली शुभाशय थकी बूज्यौ । श्री गुरुनई कहई - मुझ पूर्व तूछ पुण्यनई योगे करी महारई घरे सामानपणाई अल्प द्रव्य छई तेह थकी मुझनें पांचमो परिग्रह परिमाण व्रत उचरावओ । आत्मायें माहरई रुक्म राघवा ते उपरांत नोयम । तिवारि श्री सूरी
पंचशत
कहै - हे
तुम्हारे
भाग्यनो
गृहस्थ ! तुम्हारा पूर्व कृते पाये करी उदय हुणहार छ, तेह की तुम्ह निमित्तई पांच हज्जार रुक्मनी जयणा रावो । अधिक हूई ते
सुकृति
(
। इम कही परिग्रह प्रमांण व्रत श्रीगुरु उचराव्यो | तिवार पछी सा० पेथड लाटारली गामि वस्त्र, गुड, घी, साकर, खांड, लवण, तेल, हींग, हळद मष व्यापार थकी केतले दिने पुन्योदये राजा श्री सारंगदेवना कामदार हूओ । माहा रुद्धि पाम्यो । तिवा'रई पोताना पुत्र झांझणनें बडाउली गामि पर ० - १ ) णाव्यो । सा० झांझण पोतानो स्वामी जाणी राजा श्री सारंगदेवनई जुहार करवा गयो । तिवारें सारंगदेव ईसा झांझणनी बाल स्त्रीनें ओत्सवई बईसारी पोताने देशि, नगर, गाम प्रति प्रतिमनुष्यरं सुवर्ण गदी याणो एक कंचुकीने ठिकाणे दीधा । तिवारि सा० पेथड - नई घरे थोडई दिन घण सुवर्ण हुआ । मनस्युं विचार जे माहरई तो श्रीगुरु वचनानुसारी पांच हजार रुकानो खप छइ । पिण द्रव्य अधिक सुकृतई देवओ | एहवई श्री पर्व आव्यई हुते परिग्रह परमाण व्रतनादायक उपगारि गुरु श्री धर्मघोष सूरीने चैत्य परवाहि श्री चिंतामणी पासना दर्शनना अवसरे ७२ हजार टका संघने पहिरामणी कीधी । संच वात्सल htar | श्री गुरु उपदेश थकी बावन देव कुलिका युक्त 1 Internist नाम प्रसाद प्रमुष ८४ प्रासाद निपजाव्या । शत जीर्णोद्धार निपजाव्या । पुनः प्यार ज्ञान कोश अण
[ खंड १
हिल पत्तने लिषाव्या । त्रि शत प्रासादनें शिवर स्वर्ण कलस निपजाव्या । श्री गुरुने वचने श्रीसि (८०-२) द्वावलि १, तारणगिरे २, श्री वीजानगरे ३, श्री पोसीमा गामि ४, इडरगढि ५ ए पंच तीर्थनो संघपति हूओ । छप्पन्न घडी सुवर्ण व्ययई श्री सिद्धाचलई श्री वर्तमान चौवीसीई प्रथम जिनना मुखागलई सा० पेथडे इंद्रमालक पिंहरी । वर्ष बत्री समई श्री गुरुमुषि ब्रह्म व्रत लीधो । पुनः एकवीस वडी सुवर्णनी खोल, आंगुल aणनी प्रमांण जाडी उपजावी ते खोली मूल गंभारानो मंडप की । इणि परि सा पेथड पूत्र सा० झांझणें अढार भार कांचन वावरी स्वन्यायपार्जित लक्षमी सफली कीधी ।
एकदा एकादशी दिने वृद्ध सप्त (?) श्राद्धी व्याख्यान अवसर श्री गुरुने वांदी कहें चलाओ ! तुम्हे पाट महेलवा किम विसरी गया । तिवारई गुरु कहि इम हॉज बईसओ | तिवारे ते श्राद्धी व्यंतरी कही अमारी नीतिहुइ ते किम मिटइं । एतलि सप्तश्राद्धी रूप व्यंतरीन वेले पाटला आधा लीवा ते बेठे एतले श्री गुरुई पाटलई थंभी | धर्म कथा विसर्जन ( ८१-१ ) इं ते घरें जायवा उठी, तिवारें पाटला आसनी विलगा आव्या । लोके हास्य हुआ । ते व्यंतरी श्राद्धी घj लज्जा पमी | अन्य दर्शनी तथा जैन गृहस्थ एकठा हुआ | ते व्यंतरी रोक पशुं मुखई उचरई, आज पछी एहवो साधुना अविनय नहीं करूं । श्री गुरे दया आणी, पाटलाना बंधन थकी मुंकी । ते गुरु वांदी घरें पुहती, पिण चित्ते गुरु उपरि रोष वहई । एकदा ते स्त्री कार्मण ५ वटा साधुनें वहिराव्या । ते वटक गोचरी आलोतां श्री सूरीई दीठा | तिवारई ते व्यंतरी गुरुदृष्टि नाहि, ते ट श्री सूरीइं साधुनें आहारे निषेद्या | एकांति भूमि मंकाव्या । बिजे दिन प्रभाति जोया ते पाषाणना वटक दीठा । पुनः केतलक दिने ते व्यंतरी श्री गुरुनो सुरुवर जांणी, स्वरभंग करवानें गुरुनी गलनालकंठि केशन गुच्छ की धी । एतले श्रीसूरिहं ते व्यंतरी कर्तव्य जाणी गलनाल - कंठि रजहरण फेरव्यो । श्रीसूरि नई समाध हुई । उष्ण
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