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अंक १]
काबले घणा थोडा अने अनुपयोगी लागे छे. तेटला माटे हुं जैन प्राकृतने महाराष्ट्री भाषा तरीके जाहेर करतां बिलकुल संकोच पामतो नथी. प्रो. लेसने पण पोताना Institutiones linguae Pracriticae नामना पुस्तकना पृ. ४२ मां पण तेमज जाहेर कर्य छे. जे जे बाबतोमा जैन प्राकृत महाराष्ट्रीथी जुदी पडे छे, ते ते बाबतोमां तेणे साधारणतः प्राचीनरूपो कायम राख्यां छे. ए भाषाना आनाथी पण वधारे प्राचीन रूपनी निशानी पृ. ५ उपर सूचवेला शब्दोमां जो वामां आवे छे. आ निशानी ते, परस्पर न जोड़ाय तेवा बे व्यञ्जनोनी बच्चे लिखित भाषामा, जेम नित्यरूपे स्वरनो अंतर्भाव थाय छे, तेम न थतां विकल्परूपे थाय छे,ते छे. आवी जातनी - विकल्पे स्वर उमेर वानी - छूट जे प्राचीन सूत्रोमां आवता प्राकृत पद्योनी मात्रागणनामां लेवी जरूरनी छे, अने जे वैदिक कविओनी पद्धति साथै पण केटलीक साम्यता धरावती जोवाय छे, तेनो, पाछळना प्राकृत कविओ बिलकुल स्वीकार करता नथी. तेमनी कृतिओमां तो प्रत्येक स्वरनो उच्चार एक स्वतंत्र वर्णनी माफक नित्यरूपे थवोज जोइए. ‘सेतुबन्ध' 'सप्तशती' अने त्यार पछीना प्राकृत स्तोत्रो आदि ग्रंथोनी पद्धतिमां, अने तेनाथी प्राचीन एवा पद्यबंध सूत्रोनी पद्ध तिमां जे भेद जोवामां आवे छे, तेनुं कारण मात्र भाषामां थएलुं परिवर्तनज छे. अने आबु परिवर्तन वैदिक अने साहित्यिक संस्कृत भाषामा पण प्रत्यक्ष थए ं जोवाय छे'. अहिं सुधी आपजे जैनोना पवित्र ग्रंथोनी भाषानो क्रमिक विकास आलेख्यो छे. पण तेनी केटलीक अनियमितताओ वळी जुदाज प्रका
डॉ. हर्मन जेकोबीनी कल्पसूत्रनी प्रस्तावना.
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रनी छे; अने ते स्पष्टरीते एम दर्शावती होय तेम लागे छे के लिखित सूत्रोनी भाषा करतां असल भाषा जुदीज हती.
१ वेदोमां खास करीने 'य' अने 'व' नी पहेलां विकल्पे स्वर उमेरवानी जे पद्धति द्दती ते पाछळना संस्कृत साहि. त्यमां सर्वथा बहिष्कृत करवामां आवी छे. परंतु जैन प्राकृतमा आनाथी उलटं, एटले, पूर्वे विकल्पे स्वरनो अंतर्भाव कर बानी जे पद्धति हती, ते अवीचीन प्रकृतमां, ज्यां आगळ व्यञ्जन समुदाय संयुक्त भाव न पामतो होय त्यां, ते एक
नियमरूपे थई गई छे.
उपर जेम में जणान्युं छे तेम महावीर अने तेमना गणधरोनी मूळ भाषा मागधीज हती, अने तेना पुल्लिंगनी प्रथमानो ' " ए प्रत्यय जे कायम रह्यो है ते आ कथननुं प्रमाण स्वरूप छे. संक्षेपमां एटलं ज कहेवानुं छेके जैनग्रंथोनी छेली पुनर्रचना थई ते पहेलां तैनी भाषानुं स्वरूप नक्की थयुं न हतुं. मूळमां, जनसमुदायनी आ व्यवहारू भाषामां गुंथा - एला धर्मशास्त्रों ज्ञान जे पुरुषो मुखपाठथी बीजाओने आपता जता हता, तेओ ते भाषाने पोताना देश अने काळनी प्रचलित भाषा साथे बंध बेस करता रहेता हता. आपणा स्त्रीस्ती सननी आरंभनी सदिओमां हिंदुस्थाननी देशी भाषाओमा महाराष्ट्रनी वाक् पद्धतिए जे अग्रस्थान संप्राप्त करे लुं जणाय छे तेथी, अने वैयाकरणोए सर्वप्राकृत भाषाओनी आधारभूत तरांके तेनी जे गणना करेली देखाय छे तेथी, तथा तेनुं साहित्य के जेना केटलाक प्रतिष्ठित नमुना आजे पण विद्यमान छे - विशाळ होवाथी, जैनो तेना प्रभावने वश थया होय अने पोताना ग्रंथोने पुस्तकारूढ करती वखते ते भाषानी अनुसार पोताना पुस्तकोनी भाषानी व्यव स्था करी होय, तो तेमां आश्चर्य पामवा जेवुं नथी. लिखित पुस्तकोनी भाषामा आबु भाषा-परिवर्तन साहित्यना इतिहासमा बीजे कोई स्थळे जोवामां नथी आवतं एम नथी. में पाछळना एक पाना उपर, उतारा करनाराओना हाथे मध्यकालीन जर्मन ग्रंथोनी भाषामां आवुं भाषा-परिवर्तन थयुं हतुं, एम सूचव्युंज छे. जैन ग्रंथांना संपादकने सर्वलक्षणोपेत महाराष्ट्री भाषानो सर्वथा स्वीकार करवो गम्यो नहीं हशे अने तेथी तमणे चिरकालीन पूर्वपरंपराथी चालतां आवेलां अने तेथीज पवित्र मनाएलां एवां घणां आर्ष रूपाने कायम राख्यां हशे. कारण के
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