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अंक १
हरिषेणकृत कथाकोश।... र्गवास श्रवणबेलगोलके चन्द्रगिरि पर्वतपर हुआ था, इस कथाकोशमें समन्तभद्र, अकलंकदेव और तथा उनके साथचन्दगप्त भी गये और उनका पात्रकेसरी (वियानंद) की कथाये नहीं है। जो दूसरा नाम विशाखाचार्य नहीं किन्तु प्रभाचंद्र अवश्य होनी चाहिए थीं.। क्यों कि इसके कर्ता था। विशाखाचार्य नामके आचार्य उस संघमें उक्त समन्तभद्रादि आचार्योंके देशके ही थे। अकदूसरे ही थे । इन कथाओं और शिलालेखोंके आ- लंकदेव पात्रकेसरीसे थोडे ही समय बाद हुए थे। गरसे ही सम्राट चन्द्रगुप्तके जैन होनेकी सारी प्रभाचन्द्र और नेमिदत्तके कथाकोशोंमें ही सबसे वाल खडी की गई है और स्वर्गीय विन्सेंट स्मि- पहले उक्त कथायें दिखलाई देती हैं, जिससे संदेह
से सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ भी चन्द्रगुप्तका जैन होता है कि उनकी रचना किम्वदन्तियों या प्रचFaria'संभवनीय' बतला गये हैं। जिन शिलाले'खोले और कथाओंसे चन्द्रगुप्तका जैनत्व सिद्ध .
- लित प्रवादोंके अनुसार स्वयं उक्त कथाकोशकारों करनेका प्रयत्न किया जाता है. इसमें सन्देह ही द्वारा ही की गई है। कि उनमेंसे कोई भी इस कथाकोशसे प्राचीन हो। अन्तमें हरिषेणके कथाकोशके प्रारंभका मंगलाहम आशा करते हैं कि इतिहासज्ञ इस विषयपर वि- चरण और अन्तकी प्रशस्ति देकर हम इस लेखको शेष विचार करनेकी कृपा करेंगे।
समाप्त करते हैं:--
ओ नमो वीतरागाय । श्रियं परां प्राप्तमनन्तबोध मुनीन्द्रदेवेन्द्रनरेन्द्रवन्धम् ।।
निरस्तकन्दर्पगजेन्द्रदर्प नमाम्यहं वीरजिनं पवित्रम् ॥ १. विघ्नो न जायते नूनं न क्षुद्रामरलंघनम् । न भयं भव्यसत्त्वानां जिनमंगलकारिणाम् ॥ २
जि (ज) नस्य सर्वस्य कृतानुराग विपश्चितां कर्णरसायनं च।
समासतः साधुमनोभिरामं परं कथाकोशमहं प्रवक्ष्ये ॥ ३ , अन्तमें ग्रंथकर्ता प्रन्थके अमर होनेकी इच्छा करते हुए अपना परिचय इस प्रकार देते हैं -.. यावचन्द्रो रविः स्वर्गो यावत्सलिलराशयः । यावयोम नगाधीशो यावद्वंगादिनिम्नगाः॥ १ यावत्तारा धरा यावद्रामरावणयोः कथा । तावच्चारुकथाकोशः तिष्ठतु क्षितिमण्डले ॥२
युगलमिदम् । यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयखैः । पुन्नाटसंघांबरसन्निवासी श्रीमौनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ॥ ३ जैनालयबातविराजितान्ते चन्द्रावदातद्युतिसौधजाले। कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्धमानाख्यपुरे वसन्सः ॥ ४
युगलमिदम् । सारागमाहितमतिर्विदुषां प्रपूज्यो नानातपोविधिविधानकरो विनेयः । तस्याभवद्गुणनिधिजनताभिवंद्यः श्रीशब्दपूर्वपदको हरिषेण संज्ञः ॥ ५ छन्दोलंकृतिकाव्यनाटकचणः काव्यस्य कर्ता सतो, वेत्ता व्याकरणस्य तर्कनिपुणस्तत्त्वार्थवेदी परं । नानाशास्त्रविचक्षणो बुधगणैः सेव्यो विशुद्धाशयः,
सेनान्तो भरतादिरत्र परमः शिष्यः बभूव क्षितौ ॥ ६ १ इसके लिये देखो जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १-१-३, वर्ष १।२ मूर्यस्य का पाठः ।
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