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जैन साहित्य संशोधक ।
शताद्वी में, कोई चौथी में, कोई पांचवीं में, कोई छठी में, कोई ७ वीं में, कोई आठवीं में, कोई नववी में और यहां तक कि कोई १४ वीं जैसे बिल्कुल अर्धाचीन काल तक में भी उनका होना मानते हैं । परंतु इन सब विचारोंमेंसे हमें, हरिभद्रके साहित्यका अवलोकन करनेके बाद, प्रो. काशीनाथ बापू पाठक का विचार युक्तिसंगत मालूम देता है । उनके विचारानुसार शंकराचार्य ईस्वीकी ८ वीं शतादी अंतमें और नववीं के प्रारंभ में हुए होने चाहिए। उन्होंने एक पुरातन रूांप्रदायिक श्लोक के आधार परसे शक ७५० ( ई. स. ७८८ ) में शंकराचार्यका जन्म होना बतलाया है । इसी समयके सम्बन्ध में अन्यान्य विद्वानोंके अनेक अनुकूल-प्रतिकूल अभिप्राय जो आज तक प्रकट हुए हैं उनमें सबसे पि छला अभिप्राय प्रसिद्ध देशभक्त श्रीयुत बाल गंगाधर तिलकका, उनके 'गीतारहस्य में प्रकट हुआ है । श्रीयुत तिलक महाशयके मतले " इस कालको सौ वर्ष और भी पीछे हठाना चाहिए। क्यों कि महाभाव पन्थ के दर्शनप्रकाश नामक ग्रंथमें यह कहा है कि 'युग्मपयोधिरसान्वितशाके' अर्थात् शक संवत् ६४२ (विक्रमी संवत् ७७० ) में श्रीशंकरा
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कि, उन्होंने अपने पूर्वमें जितने प्रसिद्ध मत और संप्रदाय प्रचलित थे उन प्रत्येक में हो जाने वाले सभी बडे बडे तत्त्वशोंके विचारों पर कुछ न कुछ अपना अभिप्राय प्रदर्शित किया है । शंकराचार्य भी यदि उनके पूर्वमें हो गये होते तो उनके विचारोंकी अलोचना किये बिना हरिभद्र कभी नहीं चुप रह सकते । शंकराचार्य के विचारोंकी मीमांसा करनेका तो हरिभद्रको खास असाधारण कारण भी हो सकता था। क्यों कि, शारीरिक भाष्यके दूसरे अध्यायके द्वितीय पादमें बादरायणके
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गुहा प्रवेश किया; और उस समय उनकी आयु ३२ वर्षकी थी । अतएव यह सिद्ध होता है कि उनका जन्म शक ६१० (वि. सं. ७६५ ) में हुआ 1 ( गीतारहस्य, हिन्दी आवृत्ति, पृ. ५६४) हमारे विचारसे तिलक महाशयका यह कथन विशेष प्रामाणिक नहीं प्रतीत होता । क्यों कि शंकरा चार्य यदि ७ वीं शताद्वीमें, अर्थात् हरिभद्रके पहले हुए होते तो उनका उल्लेख हरिभद्रके ग्रंथों में कहीं न कहीं अवश्य मिलता । हरिभद्र उल्लिखित विद्वानोंकी दीर्घ नामावलि जो हमने इस लेखमें ऊपर लिखी है उसके अवलोकनसे ज्ञात होता है
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'नैकस्मिन्नसम्भवात् । ३३ । एवं चात्माऽकार्त्यम् ॥ ३४॥ न च पर्यायादप्यविरोधो विकारादिभ्यः । ३५ । अन्त्यावस्थितेश्चोभयनित्यत्वादविशेषः । ३६ । इन ४ सूत्रों पर भाष्य लिखते हुए शंकराचार्यने, जैनधर्मका मूल और मुख्य सिद्धान्त ' स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद ), है उसके ऊपर अनेक असदाक्षेप किये हैं । हरिभद्रने ' अनेकान्तजयपताका' में अनेकान्तवाद ऊपर किये जानेवाले सब ही आक्षेपोंका विस्तृत रीतिसे निरसन किया है। इस ग्रंथमें, तथा और और ग्रंथोंमें भी उन्होंने ब्रह्माद्वैत मतकी अनेक वार मीमांसा की है। ऐसी दशामें शंकराचार्य जैसे अद्वितीय अद्वैतवादीके विचारोंका यदि हरिभद्रके समय में अस्तित्व होता ( और तिलक महाशयके कथनानुसार होना ही चाहिए था ] तो, फिर उनमें सङ्कलित अनेकान्तवादपरक आक्षेपोका उत्तर दिये विना हरिभद्र कभी नहीं मौन रहते । इस लिये हमारे विचार से शंकराचार्यका जन्म हरिभद्रके देहविलयके बाद, अर्थात् प्रो. पाठकके विचारानुसार शक ७९० में होना विशेष युक्ति संगत मालूम देता है ।
Aho ! Shrutgyanam