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मंक १]
हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय। थे।राजा ललितचन्द्रका समय अन्यान्य अनुमानोंके संवेदने विषयप्रतिभासो युज्यते युक्त्ययोद्वारा ई, स. ७०८ के लगभग माना जाता है, अत
गात् । (अनेकान्नजय पताका, पृ. ९८) एव विनीतदेवका भी वही समय मानना चाहिए। इस गणनासे, मल्लवादीके लेखानुसार विनीतदेवकी ,
___ जैन दन्तकथा मुजिब इन मल्लवादीका आस्तित्व व्याख्या पर आक्षेप करनेवाले धर्मोत्तरका आस्ति- .
। ईस्वीकी चौथी शताब्दीमें माना जाता है । परंतु, त्व या तो हरिभद्र के समयमें स्वीकारना चाहिए
" इधर उपर्युक्त वर्णनानुसार धर्मोत्तरराचित न्यायबिन्दु
-टीकाके ऊपरकी टिप्पणीके कर्ता भी मलवादी या उसके अनन्तर । ऐसी दशामें तिब्बतीय इति- . हासलेखक तारानाथके इस कथनको कि, आचार्य
नामक जैनाचार्य ही ज्ञात होते हैं। आज तक जैनसा. धर्मोत्तर, काश्मीरके राजा वनपालके, जो ई. स.
हित्यमें केवल एक ही मल्लवादीके होनेका उल्लेख ८४७ के आसपास राज्य करता था. सम
देख गया है, इस लिये धर्मोत्तरटीका-टिप्पणीके कर्ता कालीन थे, असत्य मानने कोई कारण नहीं है।
मल्लवादी और 'द्वादशारनयचक्र के कर्ता प्रसिद्ध मल्लवादी दोनों एक ही समझे जाये तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं है । और इसी कारणसे डॉ. सती
शचन्द्र वि. ने अपने निबन्ध मल्लवादीका सत्ताहरिभद्र और मल्लवादी.
समय समुचितरूपसे वही लिखा है जो धर्मोत्तरके हरिभद्र और मल्लवादी आचार्यके सम्बन्धमें भी लिये स्थिर किया गया है। परस्पर इसी तरह की एक उलझन है । मल्लवादी परंतु हरिभद्र के ग्रंथम मल्लवादीका उक्त प्रकार नामसे प्रसिद्ध एक बहुत बड़े तार्किक विद्वान् जैन- स्पष्ट नामोल्लेख होनेसे, वे 'वादीमुख्य' और सुप्रधर्मके श्वेतांबर संप्रदायमें हो गये हैं। उन्होंने, जै. सिद्ध मल्लवादी तो निःसन्देह रीतिसे हरिभद्रके नधर्मका सबसे गूढ और गभीर सिद्धान्त जो नय. अस्तित्व-समयसे-अर्थात् इस्वीकी ८ वीं शताब्दी वाद कहलाता है, उस पर द्वादशारनयचक्र नामक से-पूर्व ही में हो चुके हैं । इस लिये धर्मोत्तरटीएक विशाल और प्रौढ ग्रंथकी रचना की है। हरि- काकी टिप्पणी लिखनेवाले मल्लवादीको दूसरे मल्लभद्रसरिने अपने अनेकान्तजयपताका नामक ग्रंथ में वादी समझने चाहिए और वे धर्मोत्तरके बाद दो-तीन स्थान पर उनका नामस्मरण किया है किसी समयमे हुए होने चाहिए । एवं हरिभद्रके और उन्हें वादिमुख्य' बतला कर सिद्धसेन दिवाकर ग्रंथोंसें हमें एक नये धर्मोत्तर और नये मल्लवादीका प्रणीत 'सम्मति महातर्क' के टीका लिखनेवाले पता लगता है। लिने हैं। यथा(१) उक्तं च वादिमुख्येन (टिका-मल्लवादिना
सम्मतौ)- स्वपरसत्त्वव्युदासोपादानापाद्यं हरिभद्र सूरि और शंकराचार्य। हि वस्तुनो वस्तुत्वम्, अतो यद्यपि सन्न वेदान्तमतप्रस्थापक आदि शंकराचार्यके सप्ताभवतीत्यसत, तथापि परद्रव्यादिरूपेण समयके विषयमें भी हरिभद्रके समयनिर्णयसे कुछ सतः प्रतिषेधात् तम्य च तत्रामत्त्वात प्रकाश डाला जा सकता है । शंकराचार्यके समयके तत्स्वरूपसत्वानुबन्धात् न निरुपाख्यमेव :
बारेमें अनेक विद्वानोंके अनेक विचार हैं। कोई तो तत् । इति प्रसज्यप्रतिषेधपक्षोदितदोषाभा- कोई महाकवि कालिदास और नृपति विक्रमादित्य
उन्हें ठेठ महात्मा गौतमबुद्धके समकालीन और वः ( अनेकान्तजयपताका, काशी, पृ० ४७.) के समकालीन बतलाते हैं। कोई ईस्वीकी पहली (२) उक्तं च वादिमुख्येन (श्रीमल्लवादिना स- ॐ देखो, पूर्वोक्त, मध्यकालीन भारतीय न्यायशासका
म्मतौ)-न विषयग्रहणपरिणामादृतेऽपरः इतिहास. पू. ३४-३५ ।
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