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जैन साहित्य संशोधक।
[भाग १
इसी श्लोकार्द्धको शास्त्रवार्ता-समुश्चयके उक्त त्तर और शांतरक्षित आदि विद्वान् गाथोक हरि प्रकरणमें हरिभद्र ने भी निम्नलिखित श्लोकमे तद्वत्- भद्रके मृत्युसमयसे अर्धाचीन काल में हुए हैं। ऐसा फक्त प्रारंभके एक शब्दका परिवर्तन कर-उद्धत ऐतिहासिकोका बहुमत है । इस लिये हरिभद्रका किया है। यथा
- समय भी गाथोक्त समयसे अवश्य अर्वाचीन मानआहचालोकवद्वेदे सर्वसाधारणे सति ।
ना पडेगा । यहां पर प्रथम हम हरिभद्र के ग्रंथों मेंधर्माधर्मपरिज्ञाता किमर्थ कलप्यते नरः॥ ५१ से उन कुछ अवतरणाको उद्धत कर देते हैं जिनमें और फिर इस श्लोककी स्वोपज्ञ-व्याख्या में 'आह च
धर्मपालादि बौद्ध विद्वानोंका जिकर पाया जाता
है। फिर उनके समयका विचार करेंगे। कुमारिलादिः । इस प्रकार स्वयं ग्रंथकाने साथमें है
___अनेकान्तजयपताकाके ४ र्थ परिच्छेदमें, जहां साक्षात् कुमारिलका नामोलेख भी कर दिया है। पर पदार्थों में अनेकधाँके अस्तित्वका स्थापन ___ इस प्रमाणसे यह शात हो गया कि हरिभद्रने किया गया है, वहां पर एक प्रतिपक्षी बौद्धके मुखजैसे वैयाकरण भर्तृहरिकी आलोचना की है वैसे से निम्न लिखित पंक्तियोंका उच्चारण ग्रंथकारने ही भर्तृहरिके आलोचक मीमांसक कुमारिलकी करवाया हैभी समालोचना की है।
__'स्यादेतत्सिद्धसाधनम , एतदुक्तमेव नः पूर्वाचाय:ऊपर लिखे मुताबिक प्रो. पाठकके निर्णयानुसार कुमारिलका समय जो ई. स. की ८ वीं शताब्दीका द्विविधा हि रूपादीनां शक्ति:- सामान्या प्रतिनिपूर्वार्द्ध मान लिया जाय तो फिर हरिभद्रका समय यता च । तत्र सामान्या यथा घटसन्निवशिनामुद - भी वही मानना चाहिए । क्यों कि इस शताब्दीके काद्याहरणादिकार्यकरणशक्तिः। प्रतिनियता यथा उत्तरार्द्धके मध्य-भागमे-ई. स. ७७८ में-समाप्त चक्षर्विज्ञानादिकार्यकरणशक्तिरिति ।' होनेवाली कुवलयमाला कथामें पूर्वोक्त उल्लेखानु-
(अनेकान्तजयपताका, अमदाबाद, पृ.५०) सार स्पष्ट रूपसे हरिभद्रका नामस्मरण किया हुआ इस अवतरणके पूर्वभागमें जो 'न: पर्वाचा:-' विद्यमान है । ऐसी दशामें उल्लिखित कुमारिल- .
यह वाक्यांश है, इसकी स्फुट व्याख्या स्वयं ग्रंथसमय और यह हरिभद्र समय दोनों एक ही हो : जात है । अतएव इन दोनों आचायोको समक कार ने इस प्रकार की हैलीन मान लेनेके सिवा दुसरा कोई मत दिखाई ‘न:-अस्माकंपूर्वाचार्यः-धर्मपाल-धर्मकीर्त्यादिभिः ।' नहीं देता।
___ इससे स्पष्ट है कि उद्धृत अवतरणको हरिभद्रने इस मतकी पुष्टिम अन्य प्रमाण भी यथेष्ट उप- धर्मपाल और धर्मकीर्तिके विचारोंका सूचक बतलब्ध होते हैं, सो भी बतलाते हैं। .. लाया है । धर्मपालका स्पष्ट नामोल्लेख तो फक्त इसी ___ हरिभद्र के ग्रंथोंमें जिन जिन बौद्ध विद्वानोंके एक ही जगह हमारे देखनेमें आया है, परंतु धर्मकी नाम मिलते हैं उनकी सूचि ऊपर दी गई है। इन र्तिका नाम तो पचासो जगह और भी लिखा हुआ विद्वानों से आचार्य वसुबन्धु और महामति दि- दिखाई देता है। 'अनेकान्तजयपताका' ग्रंथ खास ग्नाग तो प्राकृत गाथामें उल्लिखित हरिभद्रके कर. भिन्न भिन्न बौद्धाचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें जैनधमृत्यु-समयसे निर्विवाद रीतिसे पूर्वकाल ही में मके अनेकान्तवादका जो खण्डन किया था उसका हो चुके हैं, इस लिये उनके जिकरकी तो यहां पर समर्पक उत्तर देने ही के लिये रचा गया था। ता. कोई अपेक्षा नहीं है, परंतु धर्मपाल,धर्मकीर्ति,धर्मो- किचक्रचूडामाण आचार्य धर्मकीर्तिकी प्रखर ___५१ शास्त्रवार्तासमुच्चय, बम्बई ( दे. ला. जैनपुस्तको- प्रतिभा और प्राञ्जल लेखिनीने भारतके तत्कालीद्धार फंड ) पृ. ३५४.
न सब ही दर्शनोंके साथ जैनधर्मके ऊपर भी प्रचण्ड ५२ अनेकान्तजयपताकाकी तरह इस ग्रंथपर भी हरिभ- आक्रमण किया था। इस लिये हरिभद्रने, जहां द्रने स्वयं एक संक्षिप्त व्यख्या लिनि है-जो उपलब्ध है। कहीं थोडासा भी मौका मिल गया षहीं पर धर्म
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