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जैन साहित्य संशोधक ।
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सिवा और किसी संवत्का साबित नहीं किया जाता, तब तक प्रभावकचरित्र की ये दोनों बातें कपोलकल्पित ही माननी पडेंगीं ।
डॉ. मिरोनौ (Dr. N. Mironow ) ने Bulletin de PAcade’mie Imperiale des Sciences de St. Petersburg, 19" में सिद्धर्षि ऊपर एक लेख प्रकाशित किया है जिसमें श्रीचंद्र केवली चरित्र नामक ग्रंथ में से निम्न लिखित दो श्लोक उद्धृत किये हैं।
वस्वङ्केषु (५९८) मिते वर्षे श्रीसिद्धर्षिरिदं महत् । प्राक् प्राकृतचरित्राद्धि चरित्रं संस्कृतं व्यधात् ॥ 'तरमान्नानार्थसन्दोहा दुद्धृतेयं कथात्र च । न्यूनाधिकान्यथायुक्तेर्मिथ्या दुष्कृतमस्तु मे ॥ इन श्लोकोंका सार मात्र इतना ही है किसिद्धर्षिने संवत् ५९८ में, प्राकृत भाषामें बने हुए पूर्वके श्री चंद्रकेवलीचरित्र ऊपरसे संस्कृतमें नया चरित्र बनाया था । सिद्धर्षि अपनी उपमि० कथाके बननेका संवत्सर ९६२ लिखते हैं और इस चरित्रमें ५९८ वर्षका उल्लेख किया हुआ है । इस प्रकार इन दोनों वर्षो के बीच में ३६४ वर्षका अन्तर रहता है । इस लिये डॉ. मिरोनौका कथन है कि यदि इस ५९८ वे वर्षको गुप्त संवत् मान लिया जाय तो इस विरोधका सर्वथा परिहार हो जाता है । क्यों कि ५९८ गुप्त संवत् ३७६ वर्ष सामिल कर देने पर विक्रम संवत् ९७४ हो जाता है और यह समय सिद्धर्षिके उपमि० कथावाले संवत्सर ९६२ के समीप आ पहुंचता है ।
इस प्रकार सिद्धर्षिके समयादिके बारेमें जितने उल्लेख हमारे देखनेमें आये हैं उन सबका सार हमने यहां पर दे दिया है । हरिभद्रसूरिके समयविचारके साथ सिद्धर्षिके समय- विचारका घनिष्ठ सम्बन्ध होने से हमें यहां पर इस विषयका इतना विस्तार करने की आवश्यकता पडी है ।
सिद्धार्थ विषयक इन उपर्युक्त उल्लेखोसे पाठक यह जान सकेंगे कि हरिभद्रसूरि और सिद्धर्षिके
३२ डॉ. जेकोबीने भी अपनी उन की प्रस्तावनाके अंत में, साक्षप्त टिप्पणके साथ इन श्लोकों को छपवा दिये हैं ।
[भाग १
गुरुशिष्यभावके सम्बन्धमें, और इसी कारण से इन दोनोंके सत्ता- समय के विषय में जैन ग्रन्थकारों के परस्पर कितने विरुद्ध विचार उपलब्ध होते हैं । परंतु आश्चर्य यह है कि इन इतने विचारोंमें भी कोई ऐसा निश्चित और विश्वसनीय विचार हमें नहीं मालूम देता, जिसके द्वारा इस प्रश्नका निराकरण किया जा सके कि हरिभद्र और सिद्धर्षिके बीच के गुरुशिष्यभावका क्या अर्थ है ?- वे दोनों समकालीन थे या नहीं ? | इस लिये अब हमको, इन सब उल्लेखोंको यहीं छोड कर खुद सिद्धर्षि और हरिभद्र ही के ग्रन्थोक्त आन्तर प्रमाणौका ऊहापोह करके; तथा अन्य ग्रंथोंमें मिलते हुए इसी विषय के संवादी उल्लेख पूर्वापरभावका यथासाधन विचार करके, उनके द्वारा इन दोनों महात्माओंके सम्बन्ध और समयकी मीमांसा करनेकी आवश्यकता है। उसके सिवा, इस विषयका निराकरण होना अशक्य है ।
इस विषय के विचारके लिये हमने जितने प्रमाण संगृहीत किये हैं उनकी विस्तृत विवेचना करने के पहले, हम यहां पर जैनदर्शनदिवाकर डॉ. हर्मन जेकोबीने बडे परिश्रमके साथ, प्रकृत विषयमें कित नेएक साधकबाधक प्रमाणोका सूक्ष्मबुद्धिपूर्वक ऊहापोह करके, स्वसंपादित उपमितिभवप्रपञ्चाकी प्रस्तावना में जो विचार प्रकाशित किये हैं उनका उल्लेख करना मुनासब समझते हैं ।
डॉ. साहब अपनी प्रस्तावना में सिद्धर्षिके जीवनचरित्र के बारेमें उल्लेख करते हुए, प्रारंभ में उपमितिकी प्रशस्ति में जो गुरुपरंपरा लिखी हुई है उसका सार दे कर हरिभद्रकी प्रशंसावाले पर्योका अनुवाद देते हैं । और फिर लिखते हैं कि
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'मेरा विश्वास है कि हरिभद्र और सिद्धर्षि विषयक इन उपर्युक्त श्लोकोंके पढनेसे सभी निष्पक्षपात पाठकोंको निश्चय हो जायगा कि इनमें शिष्यने अपने साक्षात् गुरुका वर्णन किया है परंतु 'परंपरागरु' का नहीं । जिन प्रथम युरोपीय विद्वान् प्रो. ल्युमनने ( जर्मन ओरिएन्टल सोसायटीका जर्नल, पु. ४३ पृ. ३४८ पर) इन श्लोकोंका अर्थ किया है उनका भी यही मंतव्य था, और हमारे
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