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इस प्रकार हरिभद्र और सिद्धर्षिके सम्बन्धके विषयमें जैन ग्रन्थकारोंके तीन भिन्न भिन्न मत उप लब्ध होते हैं। तीनों मतोंमें यह एक बात तो समान रूपमें उपलब्ध होती है कि सिद्धर्षिका चित्त बौद्ध संसर्गके कारण स्वधर्म ऊपर से चलायमान हो गया था और वह फिर हरिभद्रसूरिकी बनाई हुई ललितविस्तरा वृत्तिके अवलोकनसे पुनः दृढ हुआ था । इस कथन से, सिद्धर्षिने ललितविस्तरा वृत्तिके लिये जो ' मदर्थ निर्मिता' ऐसा उल्लेख किया है, उसकी संगति तो एक प्रकारसे लग जाती है; परंतु मुख्य बात जो हरिभद्र और सिद्धर्षिके बीच में गुरुशिष्यभावके विषयकी है, उसके बारेमें इन ग्रन्थकारोंमें, उक्त प्रकारसे, परस्पर बहुत कुछ मतभेद है । और इस लिये सिद्धर्षिके आचार्य हरिभद्रो मे धर्मबोध करो गुरुः । इस उल्लेखकी संगति, उनके जीवनकथा-लेखकों के लेखोंके आधार ऊपरसे ठीक ठीक नहीं लगाई जा सकती ।
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सिद्धर्षिके चरित्रलेखकों के मतोंका एकंदर सार इस प्रकार है:(१) प्रभावकचरित्रके मत से सिद्धर्षि गर्गर्षि या गर्गमुनिके शिष्य थे । हरिभद्रका उन्हें कभी साक्षात् समागम नहीं हुआ था । केवल उनकी बनाई हुई ललितविस्तरा वृत्तिके पढने से उन्हें स्वधर्मपर पुनः श्रद्धा हुई थी, इस लिये कृतज्ञता ज्ञापन करनेके लिये उन्होंने हरिभद्रसूरिको अपना धर्मबोधकर गुरु लिखा है । (२) प्रबन्धकोषके मत से सिद्धर्षि स्वयं हरिभद्र ही के हस्त दीक्षित शिष्य थे । गर्गमुनि वगैरहका कोई सम्बन्ध नहीं था । हरिभद्रके शिष्य होनेके कारण अर्थात् वे उनके समकालीन ही थे ।
हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय ।
(३) पाडेवालगच्छीय पट्टावालके मतसे सिद्धहोगी । इधर ९६२ में उन्होंने अपनी कथा समाप्त की है । दीक्षा लेने के पूर्व में भी कमसे कम १५ - २० वर्ष की उम्र होनी चाहिए । इस हिसाब से उनकी आयु न्यूनसे न्यून भी ८० बर्षकी तो अवश्य होनी चाहिए ।
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पिंके दीक्षागुरु तो गर्गस्वामी ही थे । परंतु हरिभद्रसूरिका समागम भी उनको हुआ था । इसलिये वे दोनों कुछ कालतक समकालीन अवश्य थे ।
सिद्धर्षिके विषय में एक और उल्लेख हमारे देखने में आया है जिसे हम प्रमाणकी दृष्टिसे नहीं किन्तु विचित्रताकी दृष्टिसे यहां पर सूचित किये देते हैं । जैन श्वे० कॉन्फरन्स हेरल्ड नामक मासिक पके सन् १९१५ के जुलाई-अक्टोबर मासके संयुक्त अंकमें, एक गुजराती भाषामें लिखी हुई तपागच्छकी अपूर्ण पट्टावली छपी है । इस पट्टावली में हरिभद्रसूरिका भी वर्णन दिया गया है। इस वर्णनके अंतमें लिखा है कि, सिद्धर्षि हरिभद्रके भाणेज ( भागिनेय ) थे और उन्होंने उपमितिभवप्रपञ्चा कथा, श्रीचंद्रकेवलीचरित्र तथा विजयचंद्र केवली चरित्र नामके ग्रन्थ बनाये थे ( - देखो उक्त पत्र, पृ० ३५१ ) । ।
प्रभावक चरित्रमें सिद्धर्षिक सम्बन्धमें जो जो उनके समयका विचार करते समय उल्लित कर दी बातें लिखी हैं उनमें दो बातें और भी ऐसी हैं जो जाने योग्य हैं। पहली बात यह है कि, सिद्धर्षिको महाकाव्य शिशुपालवधके सुप्रसिद्ध संस्कृत कर्ता कवीश्वर माघक चचेराभाई (पितृव्यपुत्र) लिखे हैं; " और दूसरी बात यह है कि, कुवलयमाला कथाके कर्ता दक्षिण्यचिन्ह सुरिको सिद्धर्षिके गुरुभ्राता बतलाये हैं । परंतु महाकवि माघका समय ईस्वीकी ७ वीं शताब्दीका मध्य भाग निश्चित किया गया है; " और कुवलयमाला कथाके कर्ता दाक्षिण्यचिन्ह सूरिका समय जैसा कि हम बतलायें गे ई. स. की ८वीं शताब्दीका अंतिम भाग निर्णीत है । इस कारणसे, जब तक सिद्धर्षिका लिखा हुआ उक्त ९६२ का वर्ष, एक तो प्रक्षिप्त या झूठा नहीं सिद्ध होता; और दूसरा वह विक्रम संवत्के २९ देखो, प्रभावकचरित्र - सिद्धर्षिप्रबन्ध, श्लो. ३-२० । ३०
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३१ देखो, डॉ. जेकोबी की उप० की प्रस्तावना, पृ. 1३; तथा, श्रीयुत केशवलाल हर्षधराय ध्रुवका गुजराती अमरुशतक, प्रस्तावना, पृ. ९ ( ४ थी आवृत्ति ) ।
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