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हरिभद्र तरिका समय-निर्णय |
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में वि. सं. १३७१ में, समरा साहने " शत्रुंजय का जो उद्धार किया था, उसका उल्लेख किया हुआ है। इस लिये विक्रम की १४ वीं शताब्दीक पिछले पादमें इस प्रबन्धकी रचना हुई, ऐसा माननेमें कोई आपत्ति नहीं है। इस प्रबन्धमें एक पुराणी प्राकृत गाथा उद्धृत की हुई है, जिसमें लिखा है कि, विक्रम सं. वत् ५८५ में हरिभद्रसूरिका स्वर्गवास हुआ था । गाथा इस प्रकार है
पंचसए पणसी विक्कम कालाउ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्दसूरि- सूरो भवियाणं दिसउ कल्लाणं |
अर्थात् - विक्रम संवत् ५८५ में अस्त (स्वर्गस्थ ) होने वाले हरिभद्रसूरिरूप सूर्य भव्यजनोंको कल्याण प्रदान करें । '
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यहां पर यह बात खास ध्यानमें रस लेनेकी है कि यह गाथा भेरुतुंगने 'उक्तं च-' कह कर अपने प्रबन्धर्मे उद्धृत की है- नई नहीं बनाई है। मेरुतुङ्गाचार्यके, निश्चितरूपले पहले के बने हुए किसी प्रथमे ग्रह गाथा अभी तक हमारे देखनेमें नहीं आई । इस लिये यह कुछ भी नहीं कह सकते कि यह गाथा कितनी प्राचीन है । परन्तु मेरुतुङ्गले तो निश्चित ही १०० २०० वर्ष पुराणी अवश्य होनी चाहिए । विचारत्रेनिमें 'जं रया कालगओ ' इत्यादि बाक्यले प्रारंभ होने वाली, और महावीर निर्वाण और विक्रम संवत् के बीचके राजवंशका समयनिरूपण करने बाली जो तीन प्राकृत गाथाएं हैं, प्रायः वैली ही गाथाएं तो ' तित्थोग्गालियपइण्णा' नामक प्राकृत ग्रंथमें भी मिलती है; परंतु हरिभद्रके मृत्यु- समयका विधान करनेवाली प्रस्तुत गाथा वहां पर नहीं दिखाई देती । इस लिये यह भी नहीं कह सकते कि मैरुतुंगने कौनसे प्रन्थमसे इसे उद्धृत की है । और कुछ भी हो, परंतु इतनी बात तो सत्य हैं कि १४ वीं शताब्दीसे तो यह गांथा अवश्य पूर्वकी बनी हुई है ।
- इसी गाथाको प्रद्युम्ननूरिने" अपने 'विचारसार
१७ इस उद्दारका विशेष उल्लेख, हमारी शत्रुंजयतीर्थे द्वार प्रबन्ध नामक पुस्तक के उपोदूषत, पृ. ३१-३३ में किया हुआ है ।
- १८ प्रो. पिटर्सनने आपनी ३ रिपोर्टके पृ. २७२ पर 'प्रद्यनसूरिविरचित 'विचारसारप्रकरण' के, और पृ. २४४ पर समयसुंदर गणिके 'गाथासहस्री ' नामक ग्रंथके, जो अवतरण किये हैं उनमें यह प्रकृत गाथा भी सम्मिलित है। वहां पर, 'पणसीए' के स्थान पर ' पणतीए' ऐसा पाठ मुद्रित है। इस पाठ भेदके कारण, कई विद्वान् ५८५ के बदले ५३५ के वर्षमें हरिभद्रकी मृत्यु हुई मानते हैं; परंतु, वास्तविकमें वह पाठ अशुद्ध है। क्योंकि प्राकृत भाषा के 'नियमानुसार ३५ के अंक के लिये ' पणती से ' शब्द होता है, 'प्रणतीए' नहीं । यद्यपि, लेखक - पुस्तक की नकल उतारने बाले प्रमादसे 'पणती से' की जगह 'पणतीए' पाठका लिखा जाना बहुत सहज है, और इस लिये 'पणतीए' के बदले ' पणतीचे ' के शुद्ध पाठकी कल्पना कर ८५ के स्थान पर ३५ की संख्या गिन लेनेमें, भाषा-विज्ञानकी दृष्टिसे - कोई अनुचितता नहीं कही जा सकती; परंतु, प्रकृत विषयके कालसूचक अन्यान्य उल्लेखों के संवादानुसार यहां पर ' पणसीए' पाठका होना ही युक्तिसंगत और प्रमाणविहित है । बहुतसी हस्तलिखित प्रतियो में भी यही पाठ उपलब्ध होता है | प्रो. वेबरने, बर्लिनके राजकीय पुस्तकालय में संरक्षित संस्कृत-प्राकृत पुस्तकोंकी रिपोर्टके, भाग २, पृ. ९२३ पर भी, 'पणसीए' पाठ ही को शुद्ध लिखा है और '' पणती' को अशुद्ध ।
१९ ये सूरि धर्मघोषरिके शिष्य, देवप्रभके शिष्य थे । इनका निश्चित समय ज्ञात नहीं हुआ। संभव है कि कदाचित् ये मेरुतुंगके पूर्ववत हों, और 'विचारश्रेणि' में की बहुतसी प्राकृत गाथायें इन्हींके 'विचारखारे प्रकरण' मेंसे ली गई हों - यद्यपि इसमें भी वे सब गाथायें संगृहीत मात्र ही हैं, नवीन रचित नहीं । यदि विशेष खोज करने पर, इन संग्रह - कारके समयका पता लग गया और ये मेरुतुंगसे पूर्ववर्ती निश्चित हुए, तो फिर हरिभद्रकी मृत्युसंवत्सूचक प्रकृत गाथाके प्रथम अवतरणका मान, इन्हीं के इस 'विचारसार प्रकरण' को देना होगा । इस प्रकरणमें, एक दूसरी बात यह भी है कि, प्रकृत गाथा के साथ, प्रकरणकारने 'अह वा' (सं. अथ वा ) लिख कर एक दूसरी भी प्राकृत गाथा लिखीउध्दत की — है, जिसमें वार-निर्वाणसे १०५५ वर्षबाद : हरिभद्र हुए, ऐसा कथन है। इस गाथा के उद्धृत करने का मतलब, लेखकको इतना ही मालूम देता है कि हरिभद्रसूरिका स्वर्ग-समय प्रधान गाथा में जो वि. सं. ५८५ बतलाया है वह इस दूसरी गाथा के कथनसे भी समर्थित होता
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