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जैन साहित्य संशोधक
[भाग १ ग्रंथकारोंका उद्देश्य कोई सन्-संवत्वार अन्वेषणा- कर्षके मुकाबले, किसी अंशमें, सत्य नहीं प्रतीत स्मक इतिहास लिखनेका नहीं था। उनका उद्देश्य हो (और ऐसा निर्विवाद सत्य तो आज कल भी तो मात्र अपने धर्मकै समर्थक और प्रभावक आचा- सभी ऐतिहासिक सिद्धान्तोंमें कहां स्वीकृत है)। यौँ तथा विद्वानोंने, धर्मको प्रभावनाके लिये, किस क्यों कि हमारी आधुनिक साधन-सामग्री और प्रकारके लोगोंको चमत्कार बतलाये अथवा किस उस पुराणे जमानेकी साधन-सामग्रीमें आकाशप्रकार परवादियाक पाण्डित्यका पराभव किया। पाताल जितना अन्तर है। अस्तु। इत्यादि प्रकारकी जो जनमनरंजन बातें पूर्वपरंपरा- यद्यपि, उक्त कथनानुसार, हरिभद्रके जीवन-वृसे कंठस्थ चली आती थीं, उनको पुस्तकारुढ कर सान्तका सूचन करनेवाले ग्रंथों में, उनके समयका शाश्वत बनानेका; और इस प्रकारसे सर्वसाधार- कोई निर्देश किया हुआ नहीं मिलता; तथापि जैन णमें धर्मप्रभावकी महत्ता प्रदर्शित करनेका था। गुरुपरंपरा-सम्बन्धी जो कितनेएक कालगणनाहां, इस उद्देश्यकी दृष्टिले प्रबन्धादि लिखते समय त्मक प्रबन्धादि उपलब्ध है, उनमें
, उनमेसेकिसी किसीमें, प्रबन्धलेखकको यदि प्रबन्धनायकके विषयमें किसी इनके समयका उल्लेख किया हुआ अवश्य विद्यमान विशेष घटनासूचक संवतादिका कहींसे उल्लेख है। इस प्रकारके कालगणनात्मक प्रबन्धोंमें, प्रथम जो प्राप्त हो जाता था, तो उसे वह अपने निबन्ध- और प्रधानतया जो प्रबन्ध उल्लेखयोग्य है, वह में कभी कभी प्रथित भी कर देता था। परंतु, अञ्चलगच्छीय आचार्य मेरुतुङ्गका बनाया हुआ जिस अतुरताके साथ आज कल हम सन् संवता- विचारश्रेणि नामके है । मेरुतुक्राचार्य ने अपना प्रबविकी प्राप्तिके लिये उत्सुक रहते हैं और उसके ग्धचिन्तामणि नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ घि. अन्वेषणके लिये दीर्थ परिश्रम करते रहते हैं, वैसी सं. १३६. में समाप्त किया था। प्रस्तुत विचारोणिप्रकृति भारतवर्षके पुराणे प्रबन्धलेखकोंकी नहीं १५ यह प्रबन्ध पुरातत्त्वज्ञोंको सुपरिचित है । महावीर दिखाई देती।
निर्वाण और विक्रम संवत् के विषयकी आलोचनामें इतियद्यपि हमारा यह उपयुक्त कथन भारतवासी
हासज्ञोंको मुख्य कर यही प्रबन्ध विषयभूत हो रहा है (देखो, विद्वानोंके लिये सर्वसाधारण है; तथापि, हमें
डॉ. जेकोबीकी कल्पसूत्रकी प्रस्तावना; और, जार्लचा पैटिलिखते हुए एक प्रकारसे हर्ष होता है कि, जैन.
यरका महावीर समयनिर्णय नामक निबन्ध; इण्डियन एंटिधर्मके जने विद्वानोंमें कुछ ऐसी प्रकातवाल विद्वान् केरी. प. ४)। शायद, सबसे पहले, प्रसिद्ध शोधक डॉ. भी हो गये हैं, जो इस कथनके अपवाद-स्वरूप
भाऊ दाजीने, सन १८५२ में, बम्बईकी रायल एसियाटिक हैं। इन विद्वानोंके बनाए हुए निबन्धोंमेसे दो चार
सोसाइटिकी शाखाके सभ्योंके सम्मुख इस प्रबन्ध पर एक ऐसे निबन्ध भी जैनसाहित्यकी शोभा बढ़ा रहे हैं,
निबन्ध पढा था। (यह निबन्ध, इसी सोसायटिके वृत्तपत्र जिन्हें हम निस्सन्देह रीतिसे-उनके कर्ताके समयमें
(जर्नल ) के ९ वें भागमें, पृ. १४४-१५७ पर प्रकट उपलब्ध हो सकने वाली तद्विषयक साधन-साम.
हुभा है) डॉ. बुल्हरने इसको इंप्रेजी नाम " Catena of प्रीकी अपेक्षासे-आधुनिक अन्वेषणात्मक पद्धतिसे
Enquiries" दिया है (-ई. ए. पु. २, पृ. ३६२) । लिखे जानेका सम्मान दे सकते हैं। यह बात
आश्चर्य है कि यह ऐसा विवेचनीय प्रबन्ध अभी तक मूलमलग है कि, कदाचित् इन प्रबन्धोमेका ऐतिहा.
रूपमें कहीं प्रकट नहीं हुआ। पाठकोंको जान कर खुशी सिक निष्कर्ष, हमारी आधुनिक अन्वेषणाके नि
होगा कि थोडे ही समय में इम इसे छपवा कर प्रकट करना १४ मेरुतुडाचार्य विरचित-विचारश्रेणि; किसी अज्ञात- चाहते हैं। नामा विद्वान्की बनाई हुई-गुर्वावलीविशुद्धि; धर्मसाग. १६ यह ग्रंथ गुजगती भाषांतर सहित, अमदावादके रोपाध्यायकत-प्रवचनपरीक्षान्तर्गत कुछ भाग; समयसु. रामचंद्र दीनानाथ शास्त्रीने, सन १८८८ में छपवा कर न्दररचित-सामाचारीप्रकरणगत कुछ विभाग; इत्यादि प्रकट किया है। इसका इंग्रेजी अनुवाद भी बंगालकी रायक प्रकारके प्रबन्ध हमारे इस कथनके उदाहरण स्वरूप हैं। एसियाटक सोसाइटिने प्रकट किया है।
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