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तीर्थयात्रा के लिये निकलनेवाले संघोंका वर्णन
अंक २]
र्शित करता था और न तिरस्कार ही । रास्ते में चलता हुआ वह संघ आगे पीछे और अगल-बगल में, अर्थात् चारों ओर, हाथोंमें शस्त्र लिये हुए घोडे सवारोंसे संरक्षित रहता था। मार्ग में जितने भी जीर्ण-शीर्ण मन्दिर और तालाव आदि जलाशय मिलते थे उन सबको ठीक-ठाक या नवीन बनवाता हुआ वह संघ चला जाता था । इस कारण उस रास्ते से निकलकर जानेवाले अज्ञात जनों को भी चिरकाल तक उस संघके प्रयाणका परिचय मिलता रहता था। इसी तरह रास्ते में जितने मन्दिर आते और उनमें जितनी जिनमूर्तियां होती थीं उन सबकी पूजा-अर्चा करवाई जाती थी । एवं रीत्या प्रयाण करता हुआ आंतर और बाह्य दोनों प्रकारके शत्रुओं ऊपर जय प्राप्त कर नेवाला वह महामंत्री ५-६ ही दिनमें शत्रुंजय पर्वतपर पहुंच गया था । इत्यादि ।
विक्रमकी १५ वीं शताब्दी के अन्तिम भाग में, सं० गुणराज नामका एक प्रसिद्ध धनिक श्रावक हो गया है जो कर्णावतीका निवासी था । उसने शत्रुंजय, गिरनार, आबू, राणकपूर, मांडव, ईडरगढ आदि गुजरात, काठियावाड, मेवाड, मारवाड, मालवा, बागड इत्यादि देशों के प्रसिद्ध प्रसिद्ध ती थकी यात्रा निमित्त बहुत बडा संघ निकाला था । इस संघ में मुख्य आचार्य तपागच्छ के सोमसुंदर सूरि थे | उन्हीं के उपदेश से यह संघ निकला था । इस संघका बिस्तृत वर्णन सोमसौभाग्य नामक काव्यके ८ वें सर्गमें किया हुआ है । नानेवाला कवि प्रतिष्ठासोम स्वयं सोमसुंदर सूरिका हस्तदीक्षित शिष्य था । इस लिए उसका यह वर्णन प्रायः आंखों देखा कहा जा सकता है ।
काव्यका ब
जिज्ञासु पाठकोंको तो इस बारे में खुद उक्त का व्य ही को पढना चाहिए । परंतु कुछ नमूना दिखानेके लिये उसके थोडेसे पय यहांपर भी दे दिये जाते है:
दीलिकापर्व समाययौ मुदां
साम्राज्यदानप्रतिभूनिभं भुवि ।
श्रीतीर्थयात्राकृतये कृतौ तदा महोद्यमं निर्मितवान् महेभ्यराट् ॥
सज्जीक्रिथन्ते स्म मनोरथैः समं रथा महेभ्यैः स्वगृहेष्वयोमयाः । सुखासनप्रोद्धरसिंहविष्टरादीष्टं गरिष्टं भुवि तैर्विघापितम् ॥ परः सहस्राश्चतुरास्तुरंगमा आत्ता उदात्ता हृदयंगमाः पुनः । द्रव्यन्ते स्म मया महोमया अग्रेसरा वेगभृतां च वेसराः ॥ अहिम्मदश्रयुतपातसाहिराहू
सत्प्राभृतप्रीतमना मनीषिणम् । दिव्यांवरैर्यं किल पर्यधापयत्
बाहिमुख्यैः सह भूरिभिर्जनैः ॥ समार्पयद् द्वारगति निजां च तं
वायं नफेरीप्रमुखं नृपोचितम् । परःसहस्रान् सुभटान् महोदद्भटान्
प्रोन्मादिनस्तानमितश्र सादिनः ॥ श्री तीर्थयात्रारफुरमाणमीकितं
ददौ सदौन्नत्यकरं च यस्य तत् । स मार्गणप्राणिगणस्य कामितं संपूरयन् श्रीगुणराज संघराट् ॥ भव्ये मुहूर्त वृषभावभावितः संघान्वितः सौवपुराच्चचाल सः । कुंभ: शुभाम्भोभरितोऽस्य समुखीबभूव मार्गे सधवाशिरस्थितः ॥ इति प्रकृष्टेः शकुनैः प्रमातिगैः
संसूचितस्त्रोज्ज्वलमंगलोदयः । श्री वीरमग्राम इति प्रसिद्धिभृत् - पुरे ययौ श्रीगुणराज साधुराट् ॥ तस्मिन्मिलन्ति स्म पुरे नरेश्वरो
दूधुरा नराः पुण्यपराश्चतुर्दिशाम् । प्रवर्द्धते स्मानघ संघ उच्चकै
दिनेदिने वार्द्धिरिवेन्दुदर्शने ॥ देवालयाः श्रीनिळया दशाऽकृशाः सौवर्णदण्डध्वजकुम्भशोभिताः ।
चमत्कृताशेष जगत्त्रया स्फुरच्चित्रैविचित्रैर्वैरशिल्पिकल्पितैः ॥
जैनेन्द्रविम्बैः सहिता महोच्छ्रितास्तुडुंगेश्व शृंगेः सुभगंभविष्णदः ।
Aho ! Shrutgyanam
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