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संपादकीय विचार.
संपादकीय विचार.
भांडारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिर स्थापित थएली छे. ए संस्थाओमां अनेक मोटा मोटा भने
अभ्यासीओ अने अध्यापको सतत कार्य कर्या करे जैन साहित्य संशोधन कार्य.
छ,---प्रतिवर्ष नवी नवी शोधो करी जगत आगळ
रजु करता रहे छे. परंतु जे प्रजानी संस्कृतिनी शोडॉ. सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकरचें नाम
धखोळ माटे ए विदेशी लोको एटला उमंगथी संस्कृत वामयना पारदर्शी विद्वान् तरीके अने
कार्य कर्या करे छे ते प्रजाना खुद पोताना देशमा पुरातत्त्वना परम-पण्डित तरीके जगत्प्रसिद्ध छे..
तो एवी एक पण संस्था आज सुधीमां अस्तित्वमा तेमणे पोतान समग्र जीवन अने सर्वस्व साहित्यसे
आवी न हती, ए खरेखर देशना अने देश उपर वाना चरणे समर्पण करी, भारतभमिना भतकालीन राजकी सत्ताना माटे पूर्ण लज्जाजनक बाबत छे. गौरवनो, अन्धकारना अखातमांथी उद्धार करवामां '
* अस्तु सर रामकृष्णपंतना पुण्य निमित्ते भारतने हवे उत्तम भाग भजव्यो छे. अने तरुण भारतीओने
" आवी जातनी एक व्यापक संस्थानी प्राप्ति थई छे, भविष्यमां कई दिशामा प्रयत्न करवानी जरूरत छे,
' अने तेथी ए विषयना रसिकोने आनंद थाय ते ते विषयमां आदर्शनो मार्ग आंकी आप्यो छे. स्वाभाविक छ. गिर्वाणगिराना ए परम उपासक अने भरतभूमिना ए संस्थानी स्थापनानो मुख्य उद्देश्य ए छे केमहान भक्तनं उज्ज्वल नाम अने आदर्श कार्य भवि- प्राच्यविद्यानी शोधखोळमां रस लेनारा विद्वानो प्यनी प्रजानी दृष्टि आगळ हमेशां झळकतं रहे अने अने विद्यार्थिओने अपेक्षित एवं सघळं साहित्य तेना योगे ए प्रजा पोताना कर्तव्यनी प्रतिमा प्रयत्नशील पूरूं पाडी शके तेवं एक अद्यतन (up to date) बनी रहे तेवा शभ उद्देश्यथी, सर रामकृष्णना समा- पुस्तकालय स्थापन करवू. ए पुस्तकालयमा सघळी नशील देशबन्धुओ, तेमना खास प्रशंसको अने जातना हस्तलिखित अने मुद्रित पुस्तको, जुदा जुदा मित्रो, तेमज उत्साही शिष्योए मळीने, तेमना देशो अने जुदी जुदी भाषाओमां प्रकट थता आ जन्मनी ८०मी वर्षगांठना दिवसे. एटले ता. विषयना सघळां सामयिक अने नियतकालिक पत्रो जुलाई, १९१७ ना रोज, पना शहरमां, भांडार- अने रिपोटों, तथा आवी ज जातनुं प्रकट थतुं बीजं कर प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिर (Bhandarkar Or- विविध प्रकारनु समग्र साहित्य, एकत्र संगृहीत करiental Research Institute )" नामनी एक वामां आवशे. अत्यावश्यक संस्थानी स्थापना करी छे.
बीजो मुख्य उद्देश्य आ संस्थानो ए पण छे प्राच्यविद्यासंशोधननो अर्थ-पृथ्वीना पूर्वीय के-आवी शोधखोळनी प्रवृत्तिमां रस लेवानी गोलार्द्धमां आवेला देशोमां ( जेमां हिन्दुस्थान प्रधा- इच्छा राखनारा ग्रेज्युएटो अने पण्डितो-शास्त्रिनपण भोगवे छे ) वसती प्रजाओना विद्या, कला, ओने, संशोधन विद्यार्नु अर्वाचीन पद्धतिए उत्तम साहित्य, इतिहास, आदिनी शोध-खोळ करवी, शिक्षण आपी नवा संशोधको तैयार करवा. एवो थाय छे. यूरोप अन अमेरिका जेवा विदेशोमां आ संस्थाना एवा उच्च उद्देश्यो तथा एमां कार्य आ विषयनी शोधखोळ करनारी अनेक संस्थाओ करवा माटे जोडाएला निःस्वार्थ स्कॉलरोना सतत
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