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ज्ञानप्रदीपिका ।
एतयोश्चंद्रभुजगौ तिष्ठतो यदि चोदये ॥१४॥ गरादिना भवेदव्याधिः न शाम्यति न संशयः।
पृष्ठोदये क्षेत्रछत्रे व्याधिमोक्षो न जायते ॥१५॥ यदि इन्हीं षष्ठ या अष्टम स्थान में चन्द्रमा और राहु या लग्न में एक हो और अन्य इन स्थानों में तो विष देने से व्याधि हुई है और यह शान्त न होगी। पृष्ठोदय लग्न हो और लग्नेश की राशि हो छत्र हो तो व्याधि का शमन नहीं हुआ है।
व्याधिस्थानानि चैतानि मूर्धा वक्र भुजः करः । वक्षःस्थलं स्तनौ कुक्षिः कक्षं मूलं च मेहनं ॥१६॥
उरू पादौ च मेषाद्या राशयः परिकीर्तिताः । मेषादि राशियों के लग्न होने से क्रमशः इस प्रकार व्याधि स्थान जानना चाहिये--- सिर, मुंह, बाहु, हाथ ( हथेली ), छाती, स्तन, कोख, कांख, मूल, उपस्थ, अंधा और
कुजो मूर्ध्नि मुखे शुक्रौ गण्डयोर्भुजयोर्बुधः ॥१७॥ चन्द्रो वक्षसि कुक्षौ च हनौ नाभौ रविर्गुरुः ।
उर्वोः शनिरहिः पादौ ग्रहाणां स्थानमीरितम् ॥१८॥ ग्रहों का स्थान इस प्रकार है.--मंगल मूर्धा में, शुक्र मुंह में, गण्डस्थल और भुज में बुध, चन्द्र वक्षःस्थल में और कोख में, हनु ( ढोड़ी ) और नाभि में क्रमशः सूर्य और बृह. स्पति, जंघों में शनि, चरणों में राहु ।
स्थानेष्वेतेषु नष्टं च भवेदेतेषु राशिषु ।
पापयुक्तेषु दृष्टेषु नीचसक्नेषु सम्भवः ॥१६॥ इन स्थानों में अथवा इन राशियों में पाप ग्रहों का दृष्टियोग हो और उस समय में नष्ट हुभा हो तो तथा नीचासक्त में हो तो रोग का सम्भव जानना चाहिये।
पश्यंति चेटु ग्रहाश्चंदू व्याधिस्थानावलोकनम् ।
पूर्वोक्तमासवर्षाणि दिनानि च वदेत्सुधीः ॥२०॥ यदि व्याधि स्थान को देखने वाले चंद्रमा पर ग्रहों की दृष्टि हो तो पहले बताये हुए दिन, मास और वर्ष का निर्देश करना चाहिये।
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