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शानप्रदीपिका। लग्नं च चन्द्रलग्नं च, चन्द्रो यदि न पश्यति ।
पापाः पश्यन्ति चेत्पुत्रो व्यभिचारेण जायते ॥६॥ लग्न, पञ्चम नवम में यदि शुभ ग्रह हों और मित्र और उच्च तथा निज गृह में हो तो सब आरिष्ट नष्ट होते हैं। लग्न और चन्द्र लग्न को पाप-ग्रह तो देखते हों पर चन्द्र नहीं देखते हों तो पुत्र व्यभिचार से उत्पन्न होता है।
इति पुत्रप्रश्नकाण्डः
शल्यप्रश्ने तु तत्काले पादभावसुतेऽत्र युक् ।
अर्काभ्यस्तान्नपापं च शेषाणां फलमुच्यते ॥१॥ (१) शल्य के प्रश्न में प्रश्नकाल में प्रश्न लग्न से चतुर्थ में जो भाव पड़ा हो उसकी जो संख्या हो उसे १२ से गुणा कर नत्र को भाग देने से जो शेष बचे उपका फल जानना । . कपालोस्तीष्टकालोष्ठा काष्ठदेवविभूतयः ।
सवासारष्टधान्यानि धनपाषाणदुर्धराः ॥२॥ (?) सूर्यादि अंश में क्रम से कपाल-इटा चक्का काष्ठ देवता की सामग्रो सबस्न अष्ट धान्य धन पाषाण ये दुर्धर से होते हैं।
गोस्तिश्वावाचपेशामाधीक्रमात् पलानि षोडश । येषु शल्येषु मंडूकस्वर्णगोस्थिसुधादिकं ॥३॥ (2)
दृष्टाश्चेदुत्तमं चान्ये सर्वेस्युरशुभस्थिताः।
अष्टाविंशतिकोष्ठेषु वह्निदिष्ट्यादिकं न्यसेत् ॥४॥ यदि गृह उक्त स्थान में स्थित हों और अशुभान्वित हों तो पूर्व काल को कहते हैं। महा. इस कोष्ठ में कृतिका नक्षत्रों को लिखना चाहिये ।
च्छत्रभे तिष्ठति शशो तत्र शल्यमुदाहृतम् । उदयादिकं न्यस्येदष्टाविंशतिकोष्ठके ॥५॥
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