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तिथ्यादिध्रुवाधिकारः। सं० टी०-अब्दपिण्डःशरम्नः पञ्चगुणितः नगनेत्रैः सप्तविंशतिभिर्युतस्त्रिनन्दैः शेषितः गगनाङ्गेन निम्नः हिस्थः तलइन्दुरामाप्तैश्चन्द्ररामैर्भक्तः यल्लब्धं तत्खरामसंयुक्तं तेनोपरि हीनं पुनरब्दपिण्डादङ्गचन्द्रभक्ते यल्लब्धं तेन युतः पातध्रुवः स्यात्। त्रिनन्दशेषेयदाशून्यस्यात्तदाचतुःपञ्चशतानि संयोज्य ततोगगनाड़ाननेति क्रियाकार्या किन्वत्रचतुःपञ्चाशत् योजिते सति पातध्रुवो भवतीतिनियमः॥९॥
"न प्राप्यते यत्र त्रिनन्द शेष
स्तदाखखाब्धीषुयुतं प्रकुर्यात् । तदा बुधैः षष्टिगुणं विधेयम्
पूर्वोक्तवत्पात खगोध्रुवः स्यात्” ॥१॥ भा० टी०-शास्त्राब्द को ५ से गुणि उसमें २७ युक्त कर के ९३ का भाग देवे शेषको ६० से गुणि दो जगह रक्खै एक जगह ३१ के भाग से जो लब्ध मिले वह दूसरे जगह घटावै फिर उसमें ३० घटाय शास्त्राब्द में १६ का भाग देने हो जो लब्ध मिलै वह उसमें युक्त करने से राहु का ध्रुवा स्पष्ट होता है ॥ ९ ॥
उदाहरण-शास्त्राब्द ८१२ को ५ से गुणातो ४०६० हुए इस में २७ युक्त किया तो ४०८७ हुए इसमें ९३ का भाग दिये तो शेष ८८ बचे इसको ६० से गुणातो ५२८० हुए फिर इसको दो स्थानमें स्थापित किया एक स्थान ५२८० में ३१ का भाग देने स लब्ध अंशादि १७०।१९।२१ मिल इसको दूसरे स्थान में रक्खे हुए
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