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अध्याय - ७
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक
क्लिश्यमानाविनेयेषु ॥११॥ [ सत्त्वेषु मैत्री ] प्राणीमात्र के प्रति निर्वैर बुद्धि [गुणाधिकेषु प्रमोदं] अधिक गुणवानों के प्रति प्रमोद (हर्ष) [क्लिश्यमानेषु कारुण्यं] दु:खी-रोगी जीवों के प्रति करुणा
और [ अविनेयेषु माध्यस्थं ] हठाग्रही मिथ्यादृष्टि जीवों के प्रति माध्यस्थ भावना - ये चार भावना अहिंसादि पाँच व्रतों की स्थिरता के लिये बारम्बार चिन्तवन करने योग्य हैं।
Benevolence towards all living beings, joy at the sight of the virtuous, compassion and sympathy for the afflicted, and tolerance towards the insolent and ill-behaved.
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ [संवेगवैराग्यार्थम् ] संवेग अर्थात् संसार का भय और वैराग्य अर्थात् राग-द्वेष का अभाव करने के लिये [ जगत्कायस्वभावौ वा ] क्रम से संसार और शरीर के स्वभाव का चिन्तवन करना चाहिये। Or the nature of mundane existence (the universe) and the body (may also be contemplated) in order to cultivate awe at the misery of worldly existence and detachment to worldly things.
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