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अध्याय - ७
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥
[प्रमत्तयोगात् ] कषाय-राग-द्वेष अर्थात् अयत्नाचार (असावधानी-प्रमाद) के सम्बन्ध से अथवा प्रमादी जीव के मन-वचन-काय योग से [ प्राणव्यपरोपणं] जीव के भाव-प्राण का, द्रव्य-प्राण का अथवा इन दोनों का वियोग करना सो [ हिंसा ] हिंसा है।
The severance of vitalities out of passion is injury.
असदभिधानमनृतम् ॥१४॥ प्रमाद के योग से [ असदभिधानं ] जीवों को दु:खदायक अथवा मिथ्यारूप वचन बोलना सो [अनृतम्] असत्य है।
Speaking what is not commendable is falsehood.
अदत्तादानं स्तेयम् ॥१५॥ प्रमाद के योग से [अदत्तादानं ] बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण करना सो [स्तेयम् ] चोरी है।
Taking anything that is not given is stealing.
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