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अध्याय - ७
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ [ मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि] स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट विषयों के प्रति राग-द्वेष का त्याग करना [ पश्च] सो पाँच परिग्रहत्यागवत की भावनायें हैं।
Giving up attachment and aversion for agreeable and disagreeable objects of the five senses constitutes five.
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥ [हिंसादिषु ] हिंसा आदि पाँच पापों से [इह अमुत्र ] इस लोक में तथा परलोक में [ अपायावद्यदर्शनम् ] नाश की (दु:ख, आपत्ति, भय तथा निंद्यगति की) प्राप्ति होती है - ऐसा बारम्बार चिन्तवन करना चाहिये।
The consequences of violence etc. are calamity and reproach in this world and in the next.
दुःखमेव वा ॥१०॥ [वा] अथवा ये हिंसादिक पाँच पाप [दुःखमेव] दुःखरूप ही हैं - ऐसा विचारना।
Or sufferings only (result from injury etc.).
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