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- अन्मति-तीर्थ
सन्मति-तीर्थ
'जैनविद्या के विविध आयाम ('महावीर जैन विद्यालय'-गर्ल्स होस्टेल, पुणे ४, पर्युषण-पर्व-व्याख्यान, २७ ऑगस्ट २०११)
- डॉ. नलिनी जोशी
मेरे प्यारे जैन युवक-युवतियों,
आपके सामने, पर्युषणपर्व के शुभ अवसर पर, जैनविद्या याने जैनॉलॉजी के संदर्भ में कुछ विचार प्रस्तुत करने में मुझे अत्यधिक खुशी महसूस हो रही है । पूरे भारतवर्ष में एवं विदेश में भी, खासकर युवक-युवतियों में, भ्रष्टाचार विरोधी
आंदोलन की नयी चेतना जागृत हो उठी है, धधक उठी है । मा. अण्णा हजारेजी ने अहिंसा एवं सत्य का शांततामय मार्ग अपनाया है, जो कि महात्मा गांधीजी द्वारा दिखाये गये मार्ग की अगली कडी है । म. गांधीजी के जीवनचरित्रपर दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि उनके मन में अहिंसामय सत्याग्रह के मार्ग की जो ज्योति जागी, उसकी चिनगारी उन्होंने जैन तत्त्वज्ञान से अभिभावित श्रीमद् राजचंद्रजी एवं अन्य आध्यात्मिक व्यक्तिमत्वों से प्राप्त की थी । जैन तत्त्वज्ञान में अनुस्यूत तत्त्वों का व्यापक समाजहित के लिए किस प्रकार प्रयोग किया जा सकता है, इसका यह जीता-जागता उदाहरण है । पिछले पच्चीस साल से जैन परंपरा का हृदय जाननेकी कोशिश कर रही हूँ । धार्मिक एवं सामाजिक जागरण के इस दुग्धशर्करासंजोग के अवसरपर जैनविद्या याने जैनॉलॉजी के विविध आयामोंपर यथाशक्ति प्रकाश डालनेका प्रयास करूंगी।
आपको विदित है कि भारतवर्ष में उद्भूत प्राचीनतम विचारधाराओं में एक प्रमुख विचारधारा जैन परंपराने सुरक्षित रखी । समय-समयपर परिवर्तित और परिवर्धित की । समग्र भारतीय संस्कृति के अध्ययन की एक ज्ञानशाखा का पूरी दुनिया के नामचीन विश्वविद्यालयों में पिछले दस सालों से विशेष तौरपर अध्ययन जारी है । संख्या की दृष्टि से शोधकर्ता भले ही अल्प हो, पर मौलिकता की दृष्टि से "भारतीय प्राच्यविद्या" याने 'इंडॉलॉजी' के अभ्यास के नये नये मापदंड और नये नये आयाम दृग्गोचर हो रहे हैं । इंडॉलॉजी के अंतर्गत हिंदुइझम, जैनिझम और बुद्धिझम - तीनों का अंतर्भाव होता है । जैनिझम का अध्ययन 'जैनॉलॉजी' इस नाम के अंदर हो रहा है । ईस्वी के तीसरे सहस्रक के आरंभमें ही जैनॉलॉजी याने 'जैनविद्या' एक सशक्त, स्वतंत्र ज्ञानशाखा के तौरपर उभर रही है ।
समझो कि जैनविद्या एक कॅलिडोस्कोप की तरह है । रंगबिरंगे काँच के टुकडे, छह कोनोंवाली लोलक की रचनाके बीच में रखे हैं । जरा सा कोन बदला कि रचना बदली । छह अँगल्स तो कमसे कम हैं ही । इसके अलावा पॅटर्नस् - आकृतियाँ तो सैंकडों हैं, हजारों हैं, अनगिनत हैं।
जैनविद्या की छह पहलुओं में पहला है उसका प्राचीन से अर्वाचीन काल तक का धाराप्रवाही प्रवास ! हम सब जानते हैं, सुनते हैं और कहते भी हैं कि जैन परंपरा अनादिकाल से चलती आयी है और हमारा विश्वास है कि यह परंपरा अनन्त काल तक नये नये रूपांतरणों के द्वारा चलती ही रहेगी । मतलब, जैनविद्या का प्रथम अंग है उसकी ऐतिहासिकता !' अगर ऐतिहासिकता की खोज में चले तो जैन दृष्टि से प्रथम समझ लेनी चाहिए 'कालचक्र' की संकल्पना । 'काल' चक्रवत् है । उसका हम आदि-मध्य-अन्त सुनिश्चित रूप में नहीं कह सकते । एक
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