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अन्मति-तीर्थ
अन्मति-तीर्थ कालचक्र के दो बडे भाग हैं - अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी । उस प्रत्येक के छह आरे, उनके नाम, छह आरों में सृष्टि का स्वरूप, मानव-तिर्यंचों का स्वरूप, २४ तीर्थंकरों का आविर्भाव, तिरसठ शलाकापुरुषों के नाम, जानकारी आदि सब 'ऐतिहासिकता' इस आयाम के अंदर समाविष्ट होता है ।
ऋषभदेव, अरिष्टनेमी, पार्श्वनाथ और भ.महावीर - इन चार तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता अबतक प्रायः सर्वमान्य हो चुकी है । ऋषभदेव या आदिनाथ संपूर्ण मानवजाति को सुसंस्कृत बनानेवाले आदर्श व्यक्तियों में शायद पहले ही थे । उनका चरित्र ऋग्वेद, यजुर्वेद, भागवतपुराण आदि हिंदु या वैदिक ग्रंथों में भी अंकित किया हुआ है । सुप्रसिद्ध वाल्मीकि रामायण के काल में जैन इतिहास के मुताबिक बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत का शासनकाल था । बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमी स्पष्टतः महाभारत के समकालीन तीर्थंकर थे, जो वासुदेव कृष्ण के बडे चचेरे भाई थे । तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भ. महावीर के पहले २५० साल हुए थे । बौद्ध साहित्य में पार्श्वनाथ के अनुयायियों का जिक्र बार बार किया हुआ है । आज का जैन धर्म भ. महावीर की देन है । उनका सुनिश्चित काल है - ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी । उपनिषद के अनेक ऋषि, भ. बुद्ध और भ. महावीर प्रायः समकालीन थे । वह युग अपूर्व विचारमंथन का युग था । उस काल के अनेकविध विचारों की गूंज हमें प्राचीन आगमसाहित्य में मिलती है ।
इस ऐतिहासिकता' आयाम का उपांग है जैन संप्रदाय-उपसंप्रदायों का इतिहास, प्रचार, प्रसार और उनमें साम्यभेद । श्वेताम्बर-दिगम्बर, मूर्तिपूजक, मंदिरमार्गी, स्थानकवासी, तेरापंथी, तारणपंथी, सोलहपंथी, बीसपंथी, साडेसोलहपंथी, दादागुरुमार्गी, कांजीस्वामीमार्गी, अनेक जैन गण, गच्छ और उन सबका इतिहास,
अभ्यासकों ने खूब अंकित कर रखा है । इसके अलावा भारतवर्ष में जैनधर्म का प्रसार किस प्रकार से, किस क्रम से हुआ-यह भी एक खास विषय है । हिंदु और बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म का भारत के बाहर प्रसार न होने के कारणों की मीमांसाचिकित्सा भी खूब की गयी है । भारत में जो प्रमुख राजवंश हुए जैसे कि मगध, नन्द, मौर्य, गुप्त, कलिंग, गंग, कदंब, सातवाहन - इन राजवंशों में से किन्हों ने जैन धर्म की पुष्टि की, किन्हों ने विरोधी रुख अपनाया, यह भी तो जैन इतिहास का ही एक अंग है । सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति, कलिंग (उडिसा) के सम्राट खारवेल, गुजरात के राजा कुमारपाल एवं कर्नाटक के गंग राजवंश के अमात्य चामुण्डराय - इन चार राजवंशों का इतिहास जैन धर्म से आत्यंतिक निकटतासे जुड़ा हुआ है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जैन धर्म की ऐतिहासिकता की दृष्टि से खोज करना - अपने आप में एक स्वतंत्र ज्ञानशाखा ही हैं ।
अब चलते हैं सीढी के दूसरी पायदानपर, अथवा कहिए कि जैनविद्यारूपी विशाल प्रासाद के दूसरे दालन में । इस दालन में हम देख सकते हैं जैन तत्त्वज्ञान अर्थात् षड् द्रव्य और नौ तत्त्व । कौनसा भी जैन किताब खोलो, आपको बार बार देखने मिलेंगे यही षड् द्रव्य एवं नौ तत्त्व । पूरा विश्व छह द्रव्यों में बाँटा जा सकता है । यों कहिए कि षड् द्रव्यों के समूह को ही 'लोक' कहते हैं । ये तत्त्व हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जीव है चेतनतत्त्व (consciousness)। पुद्गल है matter, जो अणु-परमाणु (atoms, molecules) के स्वरूप में है। धर्म-अधर्म तत्त्व गति और स्थिति के - याने motion और rest के सहायक तत्त्व हैं । आधुनिक विज्ञान में हम कह सकते हैं कि यह गुरुत्वाकर्षण का नियम
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