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अन्मति-तीर्थ (१३) पानी की एक बूंद
- चंदा समदडिया कह रही थी, पानी की एक बूंद मुझसे एक दिन । हाल ए दर्द, किस को सुनाऊँ, अब तो बहना तू ही सुन । चतुर्गति की मारी मैं भी, चतुर्गति की मारी तुम । बस् अव्यक्त चेतना हूँ मैं, और व्यक्त चेतना हो तुम ।
अन्मति-तीर्थ सच बताऊँ ? किसी की आत्मशुद्धि मैं नहीं कर सकती । वरना क्या प्रथम पादानपर, अपने आप को न रखती ? और तो और मुक्त हो जाते अब तक, मेरे सुखदुःख के साथी । सारे के सारे जलचर, और उनकी जाति प्रजाति ।
और बिलकुल सीधी सी बात है, कैसे नहीं समझानी । अगर मैं पाप धो सकती हूँ, तो क्या पुण्य भी नहीं धोती ? उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति, या हुतेण जे सिद्धिमुदाहरति । पता नहीं उन्हें सिद्धि मिलती है या नहीं। पर हमारी तो नाहक ही जान जाती।
आज तुम्हारे हाथ में बाजी, कल पलट भी सकती । आज कर लो, तुम मनमानी, मैं नहीं कर सकती । कोई बनकर हितचिंतक, कर रहे हैं जनजागरण । कहते हैं पानी को, एक घटक पर्यावरण । डर है इन्हें, कहीं धोखे में न आ जाय उनका जीवन । इसलिए करते हैं, 'पानी बचाओ' आंदोलन ।
यह मैं केवल अपने ही बारे में नहीं कहती । यही है मेरे स्वजनों की भी आपबीती । होम, हवन, अनुष्ठान के लिए कटती कितनी वनस्पति । नष्ट की जाती है उनकी, बीज, वृद्धि और उत्पत्ति । स्थावर के साथ साथ, कितने त्रस की भी बलि चढती । 'अनार्य धर्मा' ऐसे लोगों की अकाल में ही मृत्यु होती ।
कोई कहता है, मुझे महाभूत, तो कोई कहता है H,01 विद्वानों के इस मेले में, मेरा सत्य स्वरूप कहनेवाला कोई तो हो । कोई कहता है मुझे जीवन, तो कोई कहता है नीर । हमें 'स्थावर जीव' की उपाधि देनेवाले अकेले महावीर ।
कोई कहता है, जलस्पर्श से होती है आत्मशुद्धि । करता है स्नान बार बार, मानकर पानी से मुक्ति । हजारों बार, तीर्थस्नान से भी मिलती नहीं सिद्धि । अरे नादानों ! ये तो भ्रान्त धारणा है, विपरीत बुद्धि ।
मुझे जीवन मानकर, जो मेरा ही जीवन हरता है। भगवान् क्या दण्ड दे उसे, वह तो स्वयं कर्ता, भोक्ता है । मेरी तो समझ में नहीं आता, यह कैसी तार्किकता है। मुक्ति हेतु खुद स्नान करता है, मुक्ति प्राप्त प्रभु को भी स्नान करवाता है।