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अम्मति-तीर्थ
अन्मति-तीर्थ (१२) उपसर्गपरिज्ञा में पार्श्वस्थों का स्त्रीसंगविषयक दृष्टिकोण
- अर्जुन निर्वाण उपसर्गपरिज्ञा में स्त्री को उपसर्ग के रूप में दिखाया गया है । इसके चतुर्थ उद्देशक में स्त्री को परिषह-उपसर्ग कहते हुए इस परिषह को जीतने में असमर्थ साधुओं को पार्श्वस्थ और अन्यतीर्थी कहा है।
ऐसे साधु पार्श्वनाथ के अनुयायी थे । परन्तु उनके आचरण में शिथिलता आ गई थी । इसका कारण था आजीवक एवं अन्य पन्थीय साधुओं का स्त्रीसंगविषयक दृष्टिकोण ।
इन्ही विचारों को दर्शाने के लिए यहाँ निम्न उदाहरण दिए गए हैं - १) पके हुए फोडे को दबाकर मवाद निकाल देने से तुरन्त आराम मिलता है वैसे
ही कामसुख की इच्छा करनेवाली स्त्री से समागम करने पर होता है । २) भेड एवं पिंग पक्षिणी का बिना हिलाए जल पिना भी उपरोक्त स्त्री समागम
के बराबर है। पूतना राक्षसी का बच्चों के प्रति लोलुप व्यवहार उसी प्रकार स्त्रीसंग भी दोषरहित ।
इन उदाहरणों से यही प्रतीत होता है कि इन साधुओं का स्त्रीसंग का विचार अच्छा नहीं है । इसके समर्थन में वे यह कहते हैं कि हम कहाँ कायम रूप से स्त्रीपरिग्रह कर रहे हैं ? जहाँ हम रात्रिनिवास करते हैं वही पर समागम सुख की इच्छा करनेवाली नारी से हम यह सुख प्राप्त करते हैं । उसमें लिप्त नहीं होते क्यों कि कामवासना सम्पूर्णतः प्राकृतिक है । परन्तु यह विचार पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं होता । यहाँ पर स्त्री को ही कामसुख की याचिका बताया गया है । स्त्री को ही
दोषी ठहराया गया है । जबकी ताली एक हाथ से नहीं बजती । साधु इस याचना को अस्वीकार भी कर सकता है । परन्तु उसे मान्यता देकर वह अपने स्खलनशील होने का प्रमाण ही देता है । स्त्री को परिषह मानना यह आगम विचार इसलिए सहीं नहीं लगता । इसको उपसर्ग मानने का और ऐसे उदाहरण देने का कारण यही हो सकता है कि साधु को ऐसे विचारों से घृणा निर्माण हो और वह इनसे दूर रहें। निश्चय ही ऐसे उदाहरण निम्नस्तरवाले और एकांगी दृष्टिकोणवाले भी ।
यही पर नियुक्तिकार और चूर्णिकार स्त्री को पुरुष के समान बताते हैं । वराहमिहिर यह कहते हैं कि स्वभाव से स्त्री-पुरुष समान है । उनके गुण-दुर्गुण एक जैसेही है । परन्तु नारी जीवन और कार्यक्षेत्र ऐसा है कि दुर्गुण सामने आते हैं और गुण पीछे रह जाते हैं । परन्तु नारी अपनी बुराईयों पर विजय प्राप्त करने का हमेशा प्रयत्न करती है जबकि पुरुष ऐसा करते नहीं दिखाई देते ।