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-सन्मति-तीर्थ
सम्मति-तीर्थ ब) अपरिणामी कूटस्थ नित्य आत्मा हो तो बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नहीं । क) गुण और गुणी हमेशा साथ ही होते है । प्रत्येक अवस्था 'मैं हूँ' ऐसा
अनुभव ।
ब) चतुर्धातुवादी श्रीमद्जी अ) आत्मा को क्षणिक या आत्मा ही नहीं माना तो सुख-दुःख रूप फल का
वेदन किसे होगा ? जाना और नष्ट हो गया तो कहेगा कौन ? क्षणिकता का सिद्धान्त प्रकट करनेवाला कभी क्षणिक नहीं हो सकता । जागृतस्वप्न-निद्रा वैसे ही बाल-युवा-वृद्ध इसमें जो अवस्था का नाश हुआ उसको जाननेवाला व स्मृति में रखनेवाला आत्मा है।
क्षणिक है तो मोक्ष किसका ? क) सिर्फ अवस्था का नाश होता है । यदि सत् का सर्वथा नाश हो तो संसार
व्यवस्था न रहे।
(८) जगत्-कर्तृत्ववाद - ईश्वरकृत लोक श्रीमद्जी
कर्ता ईश्वर कोई नहीं, ईश्वर शुद्ध स्वभाव । अथवा प्रेरक ते गण्ये, ईश्वर दोष प्रभाव ।।(७७)
ब)
उपसंहार :
आत्मा एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य नहीं, पर परिणामी नित्य है । इस प्रकार श्रीमद्जी ने निष्पक्षपात बुद्धि से एकान्तिक मान्यता का समाधान कर स्यावाद शैलीसे समन्वय साधा है । उनका प्रयोजन, खण्डन-मण्डन न कर के आत्महित को मुख्य रख के परमार्थ समझाने के लिए किया है।
कर्मोपचय निषेधवाद (क्रियावाद) बौद्धों का मत : मानसिक संकल्प को ही हिंसा का कारण बताया । राग-द्वेष रहित मांसभक्षण
करे तो कर्मबन्ध नहीं । श्रीमद्जी
विष-अमृत स्वयं नहीं जानते कि हमें इस जीव को फल देना है, तो भी उन्हें ग्रहण करनेवाला जीव विष-अमृत के परिणाम की तरह फल पाता है ।
(७) अकारकवाद (अक्रियावाद) सांख्य मत :
आत्मा अमूर्त, अकर्ता, नित्य तथा निष्क्रिय स्वरूप है । श्रीमद्जी
अ) कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं तो परलोक नहीं ।